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________________ १२८८ द्रव्यानुयोग-(२) शाखा का उद्देशक भी इसी प्रकार कहना चाहिए। साले वि उद्देसो भाणियव्वो। -विया.स.२१, व.१,उ.५.सु.१ पवाले वि उद्देसो भाणियव्यो। -विया.स.२१, व.१,उ.६, सु.१ पत्ते वि उद्देसो भाणियव्यो। एए सत्त वि उद्देसगा अपरिसेसं जहा मूले तहा नेयव्या। -विया. स.२१, व. १, उ.७, सु.१ एवं पुप्फे वि उद्देसओ। णवरं-देवो उववज्जइ। जहा उप्पलुद्देस-चत्तारि लेस्साओ,असीइभंगा। ओगाहणा-जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं अंगुलपुहत्तं। सेसं तं चेव। -विया. स.२१, ब.१, उ.८,सु.१ जहा पुप्फे तहा फले वि उद्देसओ अपरिसेसो भाणियव्यो। -विया.स.२१, व.१, उ.९, सु.१ एवं बीए वि उद्देसओ। एए दस उद्देसगा। -विया. स.२१, व.१, उ. १०, सु.१ ३९. कल-मसूराऽऽईणं मूल कंदाइजीवेसु उववायाइ परूवणं प. अह भंते ! कल मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निफाव कुलत्थ-आलिसंदग-सडिण-पलिमंथगाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जति? उ. गोयमा ! एवं मूलाईया दस उद्देसगा भाणियव्या जहेव सालीणं निरव सेसं तहेव भाणियव्वं । -विया.स.२१, व.२, सु.१ ४०. अयसि कुसुभाईणं मूलकंदाइजीवेसु उववायाइ परूवणं प्रवाल (कोंपल) के विषय में भी इसी प्रकार उद्देशक कहना चाहिए। पत्र के विषय में भी इसी प्रकार उद्देशक कहना चाहिए। ये सातों ही उद्देशक समग्र रूप में मूल उद्देशक के समान जानने चाहिए। पुष्प के विषय में भी इसी प्रकार उद्देशक कहना चाहिए। विशेष-उत्पल उद्देशक के अनुसार पुष्प के रूप में देव आकर उत्पन्न होता है। इनके चार लेश्याएँ होती हैं और उनके अस्सी भंग कहे गए हैं। इसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अंगुल-पृथक्त्व की होती है। शेष सब कथन पूर्ववत् है। जिस प्रकार पुष्प के विषय में कहा है उसी प्रकार फल के विषय में भी समग्र उद्देशक कहना चाहिए। बीज का उद्देशक भी इसी प्रकार है। इस प्रकार दस उद्देशक हैं। ३९. कल मसूर आदि के मूल कंदादि जीवों में उत्पातादि का प्ररूपणप्र. भन्ते ! कलाय (मटर) मसूर, तिल, मूंग, उड़द (माष) निष्पाव, कुलथ, आलिसंदक सटिन और पलिमंथक (चना) इन सबके मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भन्ते ! वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! जिस प्रकार शालि आदि के मूलादि उद्देशक कहे हैं उसी प्रकार यहाँ भी मूलादि दस उद्देशक सम्पूर्ण कहने चाहिए। ४०. अलसी कुसुम्ब आदि के मूल कंदादि जीवों के उत्पातादि का प्ररूपणप्र. भन्ते ! अलसी, कुसुम्ब, कोद्रव, कांग, राल, तूअर, कोदूसा, सण और सर्षप (सरसों) और मूले का बीज इन वनस्पतियों के मूल में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भंते ! वे कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? उ. गौतम ! शाली आदि के दस उद्देशकों के समान यहाँ भी ___ समग्ररूप से मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए। ४१. बांस वेणु आदि के मूल कंदादि जीवों के उत्पातादि का प्ररूपणप्र. भन्ते ! बांस, वेणु, कनक, कर्कावंश, चारूवंश, उड़ा, कुड़ा, विमा, कण्डा, वेणूका और कल्याणी इन सब वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भंते ! वे कहां से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! यहाँ भी पूर्ववत् शाली आदि के समान मूलादि दश उद्देशक कहने चाहिए। विशेष-यहां मूलादि किसी भी स्थान में देव उत्पन्न नहीं होते हैं। प. अह भंते ! अयसि-कुसुंभ-कोद्दव-कंगु-रालग-तुवरि कोदूसा-सण-सरिसव मूलगबीयाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जति। उ. गोयमा! एत्थ वि मूलाईया दस उदेसगा जहेव सालीणं निरवसेस तहेव भाणियव्यं। -विया. स. २१, .३, सु.१ ४१. वंस वेणुआईणं मूल कंदाइ जीवेसु उववायाइ पलवणं प. अह भंते ! वंस-वेणु-कणग-कक्कावंस-चारूवंस-उडा कूडा-विमा कंडा-वेणुया-कल्लाणीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जंति? उ. गोयमा ! एत्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा भाणियव्या जहेव सालीणं। णवरं-देवो सव्वत्थ वि न उववज्जति।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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