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________________ १२७६ उ. गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा १. अपज्जत्ता सुहुमपुढविकाइया य। २. पज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयाय । प. कण्हलेस्सा णं भंते! बायरपुढविकाइया कइविहा पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा १. अपज्जत्ता बायरपुढविकाइया य २. पज्जत्ता बायरपुढविकाइयाय । एवं आउकाइया विचउक्कएणं भेएणं णेयव्या एवं जाव वणस्सइकाइया। - विया. स. ३३/२, उ. १, सु. १-३ २५. अणंतरोववन्नग कण्हलेस्स एगिंदिय भेयप्पभेय परूवणं प. कइविहा णं भंते! अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा १. पुढविकाइया जाव ५. वणस्सइकाइया । -विया. स. ३३/२, उ. २, सु. १ एवं एएणं अभिलावेणं तहेव दुपओ भेओ जाव वजरसइकाइयति । २६. परंपरोववन्नग कण्हलेस्स एगिंदियजीवाणं भेयप्पभेय परूवणं प. कविहाणं भंते! परंपरोववन्नगा कण्डलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता ? उ. गोयमा पंचविहा परंपरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा १. पुढविकाइया जाव ५. वणस्सइकाइया । एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कओ भेओ जाव -विया. स. ३३/२, उ. ३, सु. १ वाइकाय ति २७. अनंतरोवगाढाइ कण्हलेस्स एगिंदियाणं भेयप्पभेय परूवणं एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिए एगिंदियस्स एक्कारस उद्देसा भणिया तहेव कण्हलेस्साए वि भाणियव्या जाव अचरिमकण्डलेस्सा एगिदिया। - विया. स. ३३ / २, उ. ४-११ २८. नील- काउलेस्स एगिंदिय जीवाणं भेयप्पभेय परूवणंजहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहिं वि सर्व भाणियव्यं । एवं काउलेस्सेहिं वि सयं भाणिवच णवरं - काउलेस्स त्ति अभिलावो। विया. स. ३३ / ४, उ. १-११ -विया. स. ३३/३, उ. १-११ द्रव्यानुयोग - ( २ ) उ. गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक | २. पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक | प्र. भंते! कृष्णलेश्या वाले बादर पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उ. गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक, २. पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक । इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के भी चार-चार भेद जानने चाहिए। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त (चार-चार ) भेद जानन चाहिए। २५. अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रियों के भेद-प्रभेदों का प्ररूपण प्र. भंते ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उ. गौतम ! अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. पृथ्वीकायिक यावत् ५. वनस्पतिकायिक । इसी प्रकार इसी अभिलाप से पूर्ववत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त दो-दो भेद जानने चाहिए। २६. परंपरोपपत्रक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रियों के भेद-प्रभेदों का प्ररूपण प्र. भंते ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उ. गौतम ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. पृथ्वीकायिक यावत् ५. वनस्पतिकायिक । इसी प्रकार इसी अभिलाप से वनस्पतिकायिक पर्यन्त चार-चार भेद कहने चाहिए। २७. अनन्तरावगाढादि कृष्णलेश्पी एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेदों का प्ररूपण औधिक एकेन्द्रियशतक में जिस प्रकार इग्यारह उद्देशक कहे गए हैं, उसी प्रकार इस अभिलाप से अचरम कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय पर्यन्त यहाँ कृष्णलेश्वी शतक में भी इग्यारह देशक जानने चाहिए। २८: नील- कापोतलेश्वी एकेन्द्रियों के भेद-प्रभेदों का प्ररूपण जैसे कृष्णलेश्वी एकेन्द्रिय का शतक कहा वैसे ही नीललेश्यी एकेन्द्रिय जीवों का शतक भी कहना चाहिए। कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय के विषय में भी इसी प्रकार शतक कहना चाहिए। विशेष - कृष्णलेश्या के स्थान पर कापोतलेश्या ऐसा कहना चाहिए।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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