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________________ १२५६ एयाई फासाई फुसति बाल, निरंतरं तत्थ चिरट्ठिईयं । हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं ॥२२ ॥ जे जारि पुव्यमकासि कम्मं, तहेव आगच्छइ संपराए । एतदुक्खं भवमिज्जणित्ता, वेदेति दुक्खी तमणंत दुक्खं ॥ २३ ॥ याणि सोच्चा णरगाणि धीरे, न हिंसए कंचण सव्वलोए । एतदिट्ठी अपरिग्गहे उ, बुज्झिज्ज लोगस्स वसं न गच्छे |२४| एवं तिरिक्खमणुयाम रेसुं, चउरंतणंतं तयविवागं । स सव्वमेयं इइ वेयता, कंकाल भुवमायरेज्जा ॥ सू. सु. १, अ. ५. उ. २. सु. २५ ४. रइय णिरयभायाणं अणुभवण परूवणं प. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया केरिसयं णिरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? उ. गोयमा ! ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्चं तसिया, णिच्चं छुहिया, णिच्च उब्बिग्गा, गिच्च उबटुआ, णिच्वं वहिया, णिच्चं परममसुभम उलमणुबद्धं निरयभवं पच्चणुभवमाणाविहरति । एवं जाव अहेसत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणरगा पण्णत्ता, तं जहा१. काले, ३. रोरुए, ५. अप्पइट्ठाणे। २. महाकाले, ४. महारोरुए. तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरेहिं दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किच्चा अप्पइट्ठाणं णरए णेरइयत्ताए उववण्णा, तं जहा १. रामे जमदग्गिपुते, २. दढाऊलच्छइपुते, ३. वसू उपरिचरे, ४. सुभूमे कोरव्वे, ५. बंभदत्ते चुलणिसुए। ते णं तत्थ नेरइया जाया काला कालोभासा जाव ते णं तत्थ वेयणं वेदेति उज्जलं विउलं जाय दुरहियासं - जीवा. पडि. ३, सु. ८९ (४) ५. निरयपुढबीसु पोग्गल परिणामाणुभवण पलवर्णप रयणष्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसय पोग्गलपरिणामं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? द्रव्यानुयोग - (२) वहाँ (नरकों में) सुदीर्घ आयु वाले अज्ञानी नारक निरन्तर इस प्रकार की वेदनाओं से पीड़ित रहते हैं, पूर्वोक्त दुःखों से आहत होते हुए भी उनका कोई भी रक्षक नहीं होता, वे स्वयं अकेले ही उन दुःखों का अनुभव करते हैं ॥ २२ ॥ पूर्वजन्म में जिसने जैसा कर्म किया है वही दूसरे भव में उदय में आता है। जिन्होंने एकान्त दुःख रूप नरकभव के योग्य कर्मों का उपार्जन किया है वे दुःखी जीव अनन्तदुःख रूप उस (नरक) का वेदन करते हैं ॥ २३ ॥ बुद्धिशील धीर व्यक्ति इन नरकों के वर्णन को सुनकर समस्त लोक में किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, लक्ष्य के प्रति निश्चित दृष्टि वाला और परिग्रहरहित होकर लोक (संसार) के स्वरूप को समझे किन्तु कदापि उसके वश में न होवे ॥ २४ ॥ इसी प्रकार तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के दुःखों को भी जानना चाहिए। यह चारगति रूप अनन्त संसार है और कृतकर्मानुसार विपाक (कर्म फल) होता है। इस प्रकार से जानकर वह बुद्धिमान् पुरुष मरण समय तक आत्म गवेषणा करते हुए संयम साधना का आचरण करे ॥ ४. नैरयिकों के नैरधिक भावादि अनुभवन का प्ररूपण प्र. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के नरक भव का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? उ. गौतम ! ये यहाँ नित्य डरे हुए रहते हैं, नित्य त्रसित रहते हैं, नित्य भूखे रहते हैं, नित्य उद्विग्न रहते हैं, नित्य उपद्रवग्रस्त रहते हैं, नित्य वधिक के समान क्रूर परिणाम वाले रहते हैं, पर्म अशुभ अनन्य सदृश नरकभव का अनुभव करते हुए रहते हैं। इसी प्रकार यावत् अधः सप्तम पृथ्वी में पांच अनुत्तर अति विशाल महानरक कहे गये हैं, यथा १. काल, ३. रौरव, ५. अप्रतिष्ठान । २. महाकाल, ४. महारौरव, वहाँ ये पाँच महापुरुष सर्वोत्कृष्ट हिंसादि पाप कर्मों को एकत्रित कर मृत्यु के समय मरकर अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक रूप में उत्पन्न हुए हैं, यथा १. जमदग्नि का पुत्र राम, २. लच्छतिपुत्र दृढायु, ४. कौरव्य सुभूम, ३. उपरिचर वसुराज, ५. चुलणिसुत ब्रह्मदत्त | ये वहाँ उत्पन्न हुए नैरयिक काली आभा वाले यावत् अत्यन्त कृष्णवर्ण वाले कहे गए हैं, वे वहाँ अत्यन्त जाज्वल्यमान विपुल यावत् असह्य वेदना को वेदते हैं। ५. नरक पृथ्वियों में पुद्गल परिणामों के अनुभवन का प्ररूपणप्र. भन्ते रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गल परिणामों का अनुभव करते हैं ?
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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