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________________ १२४२ द्रव्यानुयोग - (२) नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति एवं देवगति के सम्बन्ध में विशिष्ट जानकारी हेतु इस ग्रन्थ में इनके पृथक् अध्ययनों की विषयवस्तु द्रष्टव्य है, तथापि इन चारों गतियों के जीवों के सम्बन्ध में पर्याप्ति, अपर्याप्ति, परित्त, संख्या, कायस्थिति, अन्तरकाल, अल्पबहुत्व आदि द्वारों से इस अध्ययन में विचार किया गया है। जिन जीवों के नरकगति एवं नरकायु का उदय रहता है उन्हें नैरयिक, जिनके तिर्यञ्च गति एवं तिर्यञ्चायु का उदय होता है उन्हें तिर्यक्योनिक कहा जाता है। इसी प्रकार मनुष्यगति एवं मनुष्यायु के उदय वाले जीव मनुष्य तथा देवगति एवं देवायु के उदय को प्राप्त जीव देव कहलाते हैं। गति का उदय निरन्तर रहता है। इसका अर्थ है कि गति यहाँ एक जैसी अवस्था या दशा का बोधक है जो गति नामकर्म के उदय से प्राप्त होती है। जीव जब एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करता है तो वह आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि का निर्माण करने लगता है। इसमें जो कार्य उसका पूर्ण हो जाता है वह पर्याप्ति कही जाती है तथा जो कार्य अपूर्ण रहता है उसे अपर्याप्त कहते हैं। पर्याप्तियाँ ६ हैं-१. आहार पर्याप्ति २ भाषा पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय पर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वास (आन-प्राण) पर्याप्ति, ५. भाषा पर्याप्ति और ६. मन पर्याप्ति। ये समस्त पर्याप्तियाँ क्रमशः सम्पन्न होती हैं। जो जीव जिस योग्य है उसमें उतनी ही पर्याप्तियाँ होती हैं। कुछ जीव अपर्याप्त अवस्था में ही काल कर जाते हैं अर्थात् वे आहार आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं कर पाते। साधारणतया पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों में आहार, शरीर, इन्द्रिय एवं आन-प्राण (श्वासोच्छवास) ये चार पर्याप्तियाँ पायी जाती है। द्वीन्द्रिय जीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में भाषा सहित पाँच पर्याप्तियाँ होती है। देवों, नैरथिकों, मनुष्यों एवं संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों में मन सहित छहों पर्याप्तियाँ पाई जाती हैं। सम्मूर्च्छिम मनुष्यों में तीन ही पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं- आहार, शरीर एवं इन्द्रिय। वे चौथी पर्याप्ति पूर्ण किए बिना ही काल कवलित हो जाते हैं। देवों एवं गर्भज मनुष्यों में भाषा एवं मन पर्याप्ति एक साथ होने के कारण इन दोनों को एक मानकर उनके पाँच पर्याप्तियाँ कहीं गई हैं। यह कथन का विवक्षा-भेद ही है अन्यथा उनमें समस्त छहों पर्याप्तियाँ पायी जाती हैं। जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ कही गई हैं, उनमें उतनी ही अपर्याप्तियाँ मानी गई हैं। मात्र सम्मूर्छिम मनुष्यों में तीन पर्याप्तियाँ मानकर चार अपर्याप्तियाँ कही गई हैं क्योंकि उसमें चौथी पर्याप्ति पूर्ण नहीं हो पाती है। परित्त का अर्थ है परिमित। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के अतिरिक्त सब जीव परित्त अर्थात् परिमित हैं। संख्या की दृष्टि से सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं साधारण बादर वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं। गर्भज मनुष्य संख्यात हैं। शेष असंख्यात हैं। सिद्धों का कथन किया जाय तो वे अनन्त हैं। एक जीव जिस गति पर्याय में जितने काल तक रहता है वह काल उसकी काय स्थिति है। नैरयिकों की काय स्थिति (आयुष्य) जघन्य दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम होती है। देवों की कायस्थिति इतनी ही है, किन्तु देवियों की जघन्य दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट पचपन पल्योपम है। तिर्यञ्चयोनिक जीवों की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट अनन्तकाल है। तिर्यञ्च योनिक स्त्री की उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्व अधिक तीन पल्योमप होती है। मनुष्य एवं मनुष्यस्त्री की कायस्थिति भी इस प्रकार जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट पूर्वकोटि पथक्त्व अधिक तीन पल्योपम होती है। नैरयिक एवं देव कभी भी मरण को प्राप्त होकर पुनः नैरयिक एवं देव नहीं बनते जबकि तिर्यञ्च एवं मनुष्य मरण के अनन्तर पुनः उसी गति को ग्रहण कर सकते हैं। सिद्ध जीव की स्थिति आदि अनन्तकाल होती है। जो सिद्ध नहीं हुए हैं वे अपनी पर्याय में अनादि अपर्यवसित अथवा अनादिसपर्यवसित काल तक रह सकते हैं। कायस्थिति का निरूपण चार गतियों में पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीवों के आधार पर तथा प्रथम-अप्रथम समय वाले जीवों के आधार पर भी किया गया है । समस्थ जीवों की अपर्याप्त अवस्था का काल अन्तर्मुहूर्त है। पर्याप्त अवस्था का उत्कृष्ट काल ज्ञात करने के लिए उनकी उत्कृष्ट स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त काल कम कर लेना चाहिए। जैसे नैरयिक जीव का उत्कृष्ट काल तैंतीस सागरोपम है तथा जघन्यकाल दस हजार वर्ष है तो उसकी पर्याप्त अवस्था की उत्कृष्ट कार्यस्थिति अन्तर्मुहुर्त कम तैंतीस सागरोपम एवं जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष होगी। जि जीवों की जघन्य अन्तर्मुहूर्त होती है उनकी पर्याप्त एवं अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त रहेगी। इस दृष्टि से तिर्यञ्च एवं मनुष्य की पर्याप्त एवं अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है एवं पर्याप्त अवस्था की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहुर्त कम तीन पत्योपय है। यह पर्याप्त एवं अपर्याप्त अवस्था एक ही जन्म की अपेक्षा से कही गई है। प्रथम समय के समस्त जीवों का काल एक समय होता है तथा अप्रथम समय के जीवों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति सामान्य स्थिति से एक समय कम होती है। जैसे अप्रथम समय नैरयिक की जघन्य स्थिति एक समय कम दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम तैंतीस सागरोपम होगी। अन्तरकाल से आशय है एक गतिविशेष के पुनः प्राप्त होने के बीच का अन्तराल समय। एक नैरयिक जीव उस पर्याय को छोड़कर पुनः नैरयिक पर्याय ग्रहण करता है उसके मध्य व्यतीत काल को नैरयिक का अन्तरकाल कहेंगे। इसी प्रकार समस्त जीवों का अन्तरकाल निरूपित किया जाता है। भिन्न-भिन्न गति के जीवों का अन्तरकाल भिन्न-भिन्न है । अन्तरकाल का निरूपण इस अध्ययन में प्रथम एवं अप्रथम समय के जीवों के आधार पर भी किया गया है जो तत्र द्रष्टव्य है। कौन से जीव अल्प हैं तथा कौन-से अधिक, इसका निरूपण अल्प-बहुत्व के रूप में किया गया है। नरकादि चार गतियों एवं सिद्धों के अल्पबहुत्व पर विचार करने से ज्ञात होता है कि सबसे अल्प मनुष्य हैं। उनसे नैरयिक असंख्यात गुणे हैं। उनसे देव असंख्यात गुणे हैं। उनसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं तथा सिद्धों से भी अनन्तगुणे तिर्यञ्च जीव हैं। इन पाँच गतियों के साथ मनुष्यणी, तिर्यक्स्त्री एवं देवियों को मिलाने पर सबसे कम मनुष्यणी मानी गई है। प्रथम एवं अप्रथम समय वाले नैरयिक, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च एवं सिद्धों के अल्प- बहुत्व का भी इस अध्ययन में निरूपण हुआ है। 00
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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