SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वेदना अध्ययन भगवं तत्थ णं जे से वत्थे कद्दमरागरसे से णं यत्थे दुधोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, दुप्परिकम्मतराए चेव । एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, चिक्कणीकयाई, सिलिट्ठीकवाई, खिलीभूयाई भवति, संपगाढं पिणं ते वेयणं वेएमाणा, नो महानिज्जरा, नो महापज्जवसाणा भवति । २. से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरणी आउडेमाणे महया-महया खद्देणं महया-महया घोसेणं महया-महया परंपराचाए णं नो संचाएड. तीसे अडिगरणीए अहावायरे वि पोग्गले परिसाडितए। एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाइं कम्माई गाढीकयाई जाव खिलीभ्याई भवति संपगाढं पि य णं ते वेयणं माणा नो महानिज्जरा, नो महापज्जवसाणा भवंति । भगवं ! तत्थ जे से वत्थे खंजणरागरत्ते से णं वत्थे सुधोयतराए चैव सुबामतराए चैव सुपरिकम्मतराए चेव । एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंधाणं अहाबायराई कम्माई सिविलीकयाई, निट्ट्याई कडाई विप्परिणामियाइं खिप्पामेव विध्दत्थाइं भवंति जावइयं तावइयं पिणं ते वेयणं वेएमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवंति । ३. से जहानामाए केइ पुरिसे सुकं तणहत्थयं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा से नूणं गोयमा ! से सुक्के तणहत्थएं जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? हंता, भगवं ! मसमसाविज्जइ । एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई सिढिलीकबाई निठियाईकडाई विपरिणामियाई विप्पामेव विद्धत्थाइं भवंति, जावइयं तावइयं पिणं ते वेयणं वेएमाणा महानिज्ञ्जरा महापज्जवसाणा भवति । ४. से जहानामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लसि उदगबिंदु पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा ! से उदगबिंदु तत्तति अयकवल्लसि पक्खित्ते समाणे सिप्पामेय विद्वंसमागच्छ ? हंता, भगवं विध्वंसमागच्छद् । एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई सिढिलीकयाई निट्ठियाई कडाई विष्परिणामियाई खिप्पामेव विद्धत्थाइं भवंति, जावइयं तावइयं पिणं ते वेणं वेएमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवंति । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जे महावेयणे जाब पसत्य निज्जराए।" - विया. स. ६, उ. १, सु. २-४ २८. चउवीसदंडएसु अप्प-महावेयणाणुवेयण परूवणं प. दं. १. जीवे णे भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्त से भंते! किं इहगए महावेयणे, १२३९ भंते! उन दोनों वस्त्रों में से जो कईमराग से रक्त है वह (वस्त्र) दुर्धोततर, दुर्वाग्यतर एवं दुष्परिकर्मतर है। हे गौतम! इसी प्रकार उन नैरयिकों के पाप-कर्म गाढीकृत (गाढ बंधे हुए), चिकनीकृत (चिकने किये हुए), सिष्ट (एकमेक) किये हुए एवं खिलीभूत (निकाचित किये हुए) हैं, इसलिए वे सम्प्रगाढ (महान्) वेदना को वेदते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं हैं और महापर्यवसान वाले भी नहीं है। २. अथवा जैसे कोई पुरुष जोरदार आवाज के साथ महाघोष करता हुआ, लगातार जोर-जोर से चोट मारकर एरण को कूटता पीटता हुआ भी उस एरण (अधिकरण) के स्थूल पुद्गलों को विनष्ट करने में समर्थ नहीं होता। इसी प्रकार हे गौतम ! नैरयिकों के वे पापकर्म गाढीकृत यावत् खिलीभूत है इसलिए वे संप्रगाढ़ वेदना को वेदते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं हैं और महावर्यवसान वाले भी नहीं है। जैसे उन दोनों वस्त्रों में से जो खंजन के रंग से रंगा हुआ है, वह वस्त्र सुधीततर, सुवाम्यतर और सुपरिकर्मतर है।" " इसी प्रकार हे गौतम! श्रमण-निर्ग्रन्थों के यथा बादर (स्थूल) कर्म शिथिल किये हुए, जीर्ण किये हुए विपरिणमन किये हुए होने से वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और जैसी-तैसी वेदना को वेदते हुए वे श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं। ३. हे गौतम! जैसे कोई पुरुष सूखे घास के पूले को धधकती हुई अग्नि में डाले तो क्या वह सूखे घास का पूला धधकती आग में डालते ही शीघ्र जल उठता है ? हां, भंते! वह शीघ्र ही जल उठता है। इसी प्रकार गौतम ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म शिथिल किये हुए, जीर्ण किये हुए, विपरिणमन किये हुए होने से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और जैसी तैसी वेदना को वेदते हुए वे अमणनिग्रन्य महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाले होते हैं। ४. (अथवा ) हे गौतम! जैसे कोई पुरुष, अत्यन्त तपे हुए लोहे के तवे (या कड़ाह) पर पानी की बूंद डाले तो क्या वह बूंद गर्म तवे पर डालते ही शीघ्र विनष्ट हो जाती है ? हां, भंते! वह शीघ्र ही विनष्ट हो जाती है, इसी प्रकार हे गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म शिथिल किये हुए, जीर्ण किये हुए, विपरिणमन किये हुए होने से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और जैसी तैसी वेदना को वेदते हुए वे श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाले होते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि " जो महावेदना वाला होता है यावत् वही प्रशस्तनिर्जरा वाला होता है।" २८. चौबीसदंडकों में अल्पमहावेदना के वेदन का प्ररूपणप्र. दं. १. भंते ! जो जीव नैरयिकों में उत्पन्न होने वाला है, भंते ! क्या वह इस भव में रहता हुआ महावेदना वाला हो जाता है,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy