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________________ १२२२ से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"पुढविक्काइया णो णिदायं वेयणं वेदेति, अणिदायं वेयणं वेदेति।" दं.१३-१९ एवं जाव चउरिंदिया। दं. २०-२२ पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया मणूसा वाणमंतरा जहाणेरइया। प. दं. २३. जोइसियाणं भंते ! किं मिदायं वैयणं वेदेति, अणिदायं वेयणं वेदेति? उ. गोयमा ! णिदायं पि वेयणं वेदेति, अणिदायं पि वेयणं वेदेति। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ “जोइसिया णिदायं पि वेयणं वेदेति, अणिदाय पि वेयणं वेदेति?" उ. गोयमा ! जोइसिया दुविहा पण्णत्ता,तं जहा १. माइमिच्छदिट्ठी उववण्णगा य, २. अमाइसम्मदिट्ठी उववण्णगा य। १. तत्थ णं जे ते माइमिच्छदिट्ठी उववण्णगा ते णं अणिदायं वेयणं वेदेति, २. तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदिट्ठी उववण्णगा ते णं णिदायं वेयणं वेदेति। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'जोइसिया णिदायं पि वेयणं वेदेति, अणिदाय पि वेयणं वेदेति।' दं.२४. एवं वेमाणिया वि। -पण्ण.प.३५,सु.२०७७-२०८४ ४. करण भेया-चउवीसदंडएसुय परूवणं प. कइविहे णं भंते ! करणे पण्णते? उ. गोयमा ! चउव्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहा १. मणकरणे, २. वइकरणे, ३. कायकरणे, ४. कम्मकरणे। प. द.१.णेरइयाणं भंते ! कइविहे करणे पण्णत्ते? द्रव्यानुयोग-(२) इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि“पृथ्वीकायिक जीव निदावेदना नहीं वेदते किन्तु अनिदावेदना वेदते हैं।" दं. १३-१९ इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त कहना चाहिए। दं.२०-२२ पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक मनुष्य और वाणव्यन्तरो का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। प्र. द. २३. भंते ! क्या ज्योतिष्क देव निदावेदना वेदते हैं या अनिदावेदना वेदते हैं? उ. गौतम ! वे निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "ज्योतिष्क देव निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं?" उ. गौतम ! ज्योतिष्क देव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा १. मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नक, २. अमायिसम्यग्दृष्टिउपपन्नक। १. उनमें से जो मायिमिथ्यादृष्टि उपपन्नक हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं। २. जो अमायिसम्यग्दृष्टिउपपन्नक हैं, वे निदावेदना वेदते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"ज्योतिष्क देव निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं।" दं.२४. इसी प्रकार वैमानिक देवों के लिए भी जानना चाहिए। ४. करण के भेद और चौबीसदंडकों में उनका प्ररूपण प्र. भंते ! करण कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! करण चार प्रकार का कहा गया है, यथा १. मन-करण, २. वचन-करण, ३. काय-करण, ४. कर्म-करण। प्र. दं.१. भंते ! नैरयिक जीवों के कितने प्रकार के करण कहे गए हैं? उ. गोयमा ! चउव्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहा १. मणकरणे, २. वइकरणे, ३. कायकरणे, ४. कम्मकरणे। दं. २-११, २०-२४. एवं पंचेंदियाणं सव्वेसिं चउब्विहे करणे पण्णत्ते। दं. १२-१६. एगिंदियाणं दुविहे उ. गौतम ! चार प्रकार के करण कहे गए हैं, यथा १. मन-करण, २. वचन-करण, ३. काय-करण, ४. कर्म-करण। दं.२-११,२०-२४. इसी प्रकार समस्त पंचेन्द्रिय जीवों के चार प्रकार के करण कहे गए हैं। दं. १२-१६. एकेन्द्रिय जीवों में दो प्रकार के करण होते हैं, यथा१. काय-करण, २. कर्म-करण। दं. १७-१९ विकलेन्द्रिय जीवों में तीन प्रकार के करण होते हैं१.वचन-करण, २.काय-करण, ३. कर्म-करण। १.कायकरणे य, २. कम्मकरणे य। दं.१७-१९.विगलेंदियाणं तिविहे १. वइकरणे य, २. कायकरणे य, ३. कम्मकरणे य। १. (क) सम. सु.१५३, गा.२ (ख) विया. स. १९, उ.५, सु. ६-७
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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