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________________ ११५४ १००. कंखामोहणिज्जकम्मबंधहेऊपरूवणं प. १.जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं बंधंति? उ. हंता, गोयमा ! बंधति। प. कह णं भंते ! जीवा कंखामोहणिज्ज कम्मं बंधति? उ. गोयमा !पमादपच्चया,जोगनिमित्तं च बंधंति, प. सेणं भंते ! पमादे किं पवहे? उ. गोयमा !जोगप्पवहे। प. सेणं भंते !जोगे किं पवहे ? उ. गोयमा ! वीरिय पवहे। प. सेणं भंते ! वीरिए किं पवहे? उ. गोयमा !सरीर प्पवहे। प. सेणं भंते ! सरीरे किं पवहे ? उ. गोयमा !जीव प्पवहे। एवं सइ अत्थि उट्ठाणे ति वा, कम्मे ति वा, बले ति वा, वीरिए ति वा, पुरिसक्कारपरक्कम्मे ति वा। -विया. स. १, उ.३,सु.८-९ १०१. जीव-चउवीसदंडएसु कंखामोहणिज्जकम्मस्स कडाईणं तिकालतं, निरूवणंप. जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे? द्रव्यानुयोग-(२) १00. कांक्षामोहनीय कर्म के बंध हेतुओं का प्ररूपण प्र. १.भंते ! क्या जीव कांक्षामोहनीयकर्म बांधते हैं ? उ. हां, गौतम ! बांधते हैं। प्र. भंते ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म किन कारणों से बांधते हैं ? उ. गौतम ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से (कांक्षामोहनीय कर्म) बांधते हैं। प्र. भंते ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! प्रमाद योग से उत्पन्न होता है। प्र. भंते ! योग किससे उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! योग वीर्य से उत्पन्न होता है। प्र. भंते ! वीर्य किससे उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है। प्र. भंते ! शरीर किससे उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! शरीर जीव से उत्पन्न होता है। ऐसा होने पर जीव का उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकर-पराक्रम होता है। उ. हंता, गोयमा ! कडे। प. से णं भंते !१.किं देसेणं देसे कडे, २. देसेणं सव्वे कडे, ३. सव्वेणं देसे कडे, ४. सव्वेणं सव्वे कडे। उ. गोयमा !१.नो देसेणं देसे कडे, २. नो देसेणं सव्वे कडे, ३. नो सव्वेणं देसे कडे, ४. सव्वेणं सव्वे कडे। प. दं.१.नेरइयाणं भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे? उ. हंता, गोयमा ! नो देसेणं देसे कडे जाव सव्वेणं सव्वे कडे। दं.२-२४ एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ भाणियव्यो। १०१. जीव-चौबीसदंडकों में कांक्षामोहनीय कर्म का कृत आदि त्रिकालत्व का निरूपणप्र. भंते ! क्या जीवों का कांक्षामोहनीय कर्म कृत (किया हुआ) है? उ. हां, गौतम ! वह कृत है। प्र. भंते ! १. क्या वह देश से देशकृत है, २. देश से सर्वकृत है, ३. सर्व से देशकृत है, ४. सर्व से सर्वकृत है? उ. गौतम ! १. वह देश से देशकृत नहीं है, २. देश से सर्वकृत नहीं है, ३. सर्व से देशकृत नहीं है, ४. किन्तु सर्व से सर्वकृत है। प. दं.१. भंते ! क्या नैरयिकों का कांक्षामोहनीय कर्म कृत है ? उ. हां, गौतम ! देश से देशकृत नहीं है यावत् सर्व से सर्वकृत है। दं. २-२४ इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त दण्डक कहने चाहिए। प्र. भंते ! क्या जीवों ने कांक्षामोहनीय कर्म का उपार्जन किया है? उ. हां, गौतम ! किया है। प्र. भंते ! क्या देश से देश का उपार्जन किया है यावत् सर्व से सर्व का उपार्जन किया है? उ. गौतम ! देश से देश का उपार्जन नहीं किया है यावत् सर्व से सर्व का उपार्जन किया है। दं. १२४ इस अभिलाप से वैमानिक पर्यन्त दंडक कहने चाहिए। प. जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्म करिसु? उ. हंता, गोयमा ! करिंसु। प. तं भंते ! कि देसेणं देसं करिसु जाव सव्वेणं सव्वं करिंसु? उ. गोयमा ! नो देसेणं देसं करंसु जाव सव्वेणं सव्वं करिंसु। दं.१-२४ एएणं अभिलावणं दंडओ जाव वेमाणियाणं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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