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________________ ( ११४८ दं.२१.एवं मणूसे वि। दं. १-२४. अवसेसा णेरइयाई एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णियमा अट्ठविह-कम्मपगडीओ वेदेति जाव वेमाणिया। प. जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेयमाणा कइ कम्मपगडीओ वेदेति? उ. गोयमा !१. सव्वे वि ताव होज्जा अट्ठविहवेयगा, २. अहवा अट्ठविहवेयगा य, सत्तविहवेयगे य, ३. अहवा अट्ठविहवेयगा य, सत्तविहवेयगा य। दं.२१.एवं मणूसा वि। दरिसणावरणिज्जं अंतराइयं च एवं चेव भाणियव्वं। द्रव्यानुयोग-(२) दं.२१. इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जानना चाहिए। दं.१-२४.शेष सभी जीव नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से नियमतः आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। प्र. भंते ! अनेक जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ? उ. गौतम ! १. सभी जीव आठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, २. अथवा अनेक जीव आठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं और एक जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है। ३. अथवा अनेक जीव आठ या सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं। द. २१. इसी प्रकार मनुष्यों में भी ये तीन भंग होते हैं। दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म के साथ (अन्य कर्म प्रकृतियों के वेदन के विषय में) भी पूर्ववत् कहना चाहिए। प्र. भंते ! वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म का वेदन करता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? उ. गौतम ! जिस प्रकार पूर्व में वेदनीय के बन्धक-वेदक का कथन किया गया है, उसी प्रकार यहां भी बंधक वेदक का कथन करना चाहिए। प्र. भंते ! मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है? उ. गौतम ! वह नियमतः आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त वेदन कहना चाहिए। इसी प्रकार बहुत्व की विवक्षा से भी समझना चाहिए। ९०. अर्हत के कर्म वेदन का प्ररूपण उत्पन्न केवलज्ञान-दर्शन के धारक अहँत जिन केवली चार कर्माशों का वेदन करते हैं, यथा१. वेदनीय, २. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र। प. वेयणिज्ज-आउय-णाम-गोयाई वेयमाणे कइ कम्मपगडीओ वेएइ? उ. गोयमा !जहा बंधवेयगस्स बेयणिज्जंतहा भाणियव्यं। प. जीवे णं भंते ! मोहणिज्जं कम्मं वेयमाणे कइ कम्मपगडीओ वेएइ? उ. गोयमा ! णियमा अट्ठकम्मपगडीओ वेएइ। दं.१-२४. एवं णेरइए जाव वेमाणिए। एवं पत्तेण वि। -पण्ण.प.२७,सु.१७८६-१७९२ ९०. अरहजिणेस्स कम्म वेयण परूवणं उप्पण्णणाणदंसणधरे णं अरहा जिणे केवली चत्तारि कम्मसे वेदेइ,तं जहा१. वेयणिज्जं, २.आउयं, ३.णाम, ४. गोयं। -ठाणं.अ.४, उ.१.सु.२६८ ९१. एगिदिएसु कम्मपयडिसामित्तं बंध-वेयण परूवणं य प. अपज्जत्तसुहुम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा १.नाणावरणिज्जं जाव ८.अंतराइयं। प. पज्जत्तसुहुम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ,तं जहा १.नाणावरणिज्जंजाव ८.अंतराइयं। प. अपज्जत्त-बायर-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? ९१. एकेन्द्रिय जीवों में कर्म प्रकृतियों के स्वामित्व बन्ध और वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! अपर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! उनके आठ कर्मप्रकृतियां कही गई हैं, यथा १. ज्ञानावरणीय यावत् ८. अन्तराय। प्र. भंते ! पर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! उनके आठ कर्म प्रकृतियां कही गई हैं, यथा १. ज्ञानावरणीय यावत् ८. अन्तराय। प्र. भंते ! अपर्याप्तबादरपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं? १. विया.स.१६,उ.३,सु.४
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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