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________________ कर्म अध्ययन ११२१ प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ "अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु समायं निट्ठविंसु प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "कई सम समय में वेदन प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं। कई सम समय में वेदन प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में समाप्त करते हैं?" उ. गौतम ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं, अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु?" उ. गोयमा ! अणंतरोववन्नगा नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा१. अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, यथा २. अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा। १. तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्ठविंसु समायं निट्ठविंसु। २. तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु, समायं निट्ठविंसु १. कई समायु वाले हैं और सम समय में उत्पन्न होने वाले हैं, २. कई समायु वाले हैं और विषम समय में उत्पन्न होने वाले हैं। १. उनमें से जो समायु वाले हैं और विषम समय में उत्पन्न होने वाले हैं। वे पापकर्म का वेदन सम समय में प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं। २. उनमें से जो समायु वाले हैं और विषम समय में उत्पन्न होने वाले हैं, वे पापकर्म का वेदन सम समय में प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में समाप्त करते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कई सम समय में वेदन प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं, कई सम समय में प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में समाप्त करते हैं।" प्र. भंते ! क्या सलेश्य अनन्तरोपपन्नक नैरयिक पापकर्म का वेदन सम समय में प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं-यावत् विषम समय में प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में ही समाप्त करते हैं? उ. गौतम ! सम्पूर्ण वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। इसी प्रकार अनाकारोपयुक्त (नैरयिकों) तक समझना चाहिए। दं. २-२४. इसी प्रकार असुरकुमारों से वैमानिकों तक भी कहना चाहिए। विशेष-जिसमें जो पद पाया जाता है, वही कहना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के सम्बन्ध में भी दण्डक कहना चाहिए। इसी प्रकार अन्तरायकर्म तक समग्र पाठ कहना चाहिए। अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु।" प. सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा नेरइया पावं कम किं समायं पट्ठविंसु समायं निट्ठविंसु जावविसमायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु? उ. गोयमा ! एवं चेव। एवं जाव अणागारोवउत्ता। दं.२-२४. एवं असुरकुमारा विजाव वेमाणिया। णवरं-जंजस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्यं । एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडओ। एवं निरवसेसं जाव अंतराइएणं। -विया. स.२९, उ.२, सु. १-७ एवं एएणं गमएणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगपरिवाडी सच्चेव इह विभाणियव्वा जाव अचरिमो त्ति। इसी प्रकार इसी आलापक के क्रम से जैसे बन्धीशतक में उद्देशकों की परिपाटी कही है, यहाँ भी वैसे ही अचरमोद्देशक पर्यन्त कहनी चाहिए। अनन्तर सम्बन्धी चार उद्देशकों का कथन एक समान करना चाहिए। शेष सात उद्देशकों का कथन एक समान करना चाहिए। अणंतरउद्देसगाणं चउण्ह वि एक्का वत्तव्वया। सेसाणं सत्तहं एक्का वत्तव्वया। -विया.स.२९, उ.३-११,सु.१
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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