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________________ ११२० ४. तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववन्नगा ते णं पावं कम विसमायं पट्ठविंसु · विसमायं निट्ठविंसु। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइअत्थेगइया समायं पट्ठविंसु समायं निविंसु जाव अत्थेगइया विसमायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु। प. सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्मं किं समायं पट्ठविंसु समायं निट्ठविंसु जावविसमायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु? उ. गोयमा ! एवं चेव। एवं सव्यट्ठाणेसु विजाव अणागारोवउत्ता, एए सव्वे विपया एयाए वत्तव्ययाए भाणियव्या। प. दं.१.नेरइया णं भंते ! पावं कम्म किं समायं पट्ठविंसु समायं निट्ठविंसु जाव विसमायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु? उ. गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु, समायं निट्ठविंसु जाव अत्थेगइया विसमायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु। द्रव्यानुयोग-(२) ४. उनमें से जो विषम आयु वाले हैं और विषम समय में उत्पन्न होने वाले हैं, वे पापकर्म का वेदन भी विषम समय में प्रारम्भ करते हैं और विषय समय में ही समाप्त करते हैं, इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कितने ही जीव पापकर्मों का वेदन सम समय में प्रारम्भ करते हैं और सम समय में ही समाप्त करते हैं यावत् कितने ही जीव विषम समय में प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में ही समाप्त करते हैं।" प्र. भंते ! क्या सलेश्य जीव पापकर्म का वेदन सम समय में प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं यावत्विषम समय में प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में समाप्त करते हैं? उ. गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए। इसी प्रकार सभी स्थानों में अनाकारोपयुक्त तक जानना चाहिए। इन सभी पदों में यही कथन करना चाहिए। प्र. दं.१. भंते ! क्या नैरयिक पापकर्म का वेदन सम समय में प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं यावत् विषम समय में प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में समाप्त करते हैं? उ. गौतम ! कई नैरयिक पापकर्म का वेदन सम समय में प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं यावत् कई नैरयिक विषम समय में प्रारम्भ करते हैं और विषम में समाप्त करते हैं। इसी प्रकार जैसे सामान्य जीवों का कथन किया उसी प्रकार अनाकारोपयुक्त नैरयिकों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। दं.२-२४. इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए। किन्तु जिसमें जो पद पाये जाएँ उन्हें इसी क्रम से कहना चाहिए। जिस प्रकार पापकर्म के सम्बन्ध में दण्डक कहा इसी क्रम से सामान्य जीव से वैमानिकों तक आठों कर्म-प्रकृतियों के सम्बन्ध में आठ आठ दण्डक कहने चाहिए। इस प्रकार नौ दण्डक सहित यह प्रथम उद्देशक कहना चाहिए। ५५. अनन्तरोपपन्नक आदि चौबीस दंण्डकों में पापकर्म और अष्ट कर्मों का सम विषम प्रवर्तन समापनप्र. दं. १. भंते ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक सम समय में पापकर्म का वेदन प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं यावत् विषम समय में वेदन प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में समाप्त करते हैं? उ. गौतम ! कई अनन्तरोपपन्नक नैरयिक पापकर्म को सम समय में वेदन प्रारम्भ करते हैं और सम समय में समाप्त करते हैं कई सम समय में वेदन प्रारम्भ करते हैं और विषम समय में समाप्त करते हैं। एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणियव्वं जाव अणागारोवउत्ता। दं.२-२४.एवं जाव वेमाणियाणं। जस्सजं अत्थितं एएणं चेव कमेणं भाणियव्यं जहा पावेणं दंडओ एएणं कमेणं अट्ठसु वि कम्मपगडीस अट्ठ दंडगा भाणियव्या जीवाईया वेमाणियपज्जवसाणा। एसो नवदंडगसहिओ पढमो उद्देसओ भाणियव्यो। -विया.स.२९, उ.१,सु.१-६, ५५. अणंतरोववन्नगाइ सु चउवीसइदंडएसु पावकम्म-अट्ठ- कम्माण य सम-विसम-पट्ठवण-निट्ठवणंप. दं.१.अणंतरोववन्नगाणं भंते। नेरइया पावं कम्म किं समायं पट्ठविंसु समायं निट्ठविंसुजावविसमायं पट्ठविंसु विसमायं निट्ठविंसु? उ. गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु, समायं निट्ठविंसु, अत्थेगइया समायं पट्ठविंसु, विसमायं निट्ठविंसु।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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