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________________ ( १११४ प. अणंतरोववण्णए णं भंते ! णेरइए आउय कम्म किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ जाव बंधी,न बंधइ,न बंधिस्सइ? उ. गोयमा ! बंधी,न बंधइ,बंधिस्सइ। एगो तइओ भंगो। प. सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववण्णए णेरइए आउयं कम्म किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ जाव बंधी,न बंधइ, न बंधिस्सइ? उ. गोयमा ! एवं चेव तइओ भंगो। एवंजाव अणागारोवउत्ते। सव्वत्थ वि तइओ भंगो। एवं मणुस्सवज्जंजाव वेमाणियाणं। । द्रव्यानुयोग-(२) प्र. भंते ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने आयुकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा यावत् बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा? उ. गौतम ! उसने आयुकर्म बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा। यह एक तृतीय भंग है। प्र. भंते ! क्या सलेश्य अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने आयुकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा यावत् बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा? उ. गौतम ! इसी प्रकार तृतीय भंग होता है। इसी प्रकार अनाकारोपयुक्त स्थान तक सर्वत्र तृतीय भंग समझना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यों के अतिरिक्त वैमानिकों तक तृतीय भंग होता है। मनुष्यों के सभी स्थानों में तृतीय और चतुर्थ भंग कहना चाहिए. विशेष-कृष्णपाक्षिक मनुष्यों में तृतीय भंग होता है। सभी स्थानों में नानात्व (भिन्नता) पूर्ववत् समझना चाहिए। मणुस्साणं सव्वत्थ तइए-चउत्था भंगा' णवर-कण्हपक्खिएसु तइओ भंगो। सव्वेसिंणाणत्ताइंताईचेव। -विया. स. २६, उ. २, सु.१०-१६ ४२. चउवीसदंडएसुअचरिमाणं कम्मट्ठगबंधभंगाप. द.१.(१) अचरिमे णं भंते ! णेरइए णाणावरणिज्जं कम्म-किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ जावबंधी,न बंधइ, न बंधिस्सइ? उ. गोयमा ! एवं जहेव पावं। णवर-दं. २१. मणुस्सेसु सकसाईसु लोभकसाईसु य पढम-बिइया भंगा, सेसा अट्ठारस चरमविहूणा तिण्णि भंगा, दं.२२-२४.सेसं तहेव जाव वेमाणियाणं। ४२. चौबीस दंडकों में अचरिमों के आठकों के बंध भंगप्र. दं.१.(१) भंते ! क्या अचरम नैरयिक ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा यावत् बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा? उ. गौतम ! जिस प्रकार पापकर्मबन्ध के विषय में कहा उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेष-दं.२१. सकषायी और लोभकषायी मनुष्यों में प्रथम और द्वितीय भंग कहने चाहिए। शेष अठारह पदों में अन्तिम भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहने चाहिए। दं. २-२४. शेष पदों में वैमानिक पर्यन्त पूर्ववत् जानना चाहिए। (२) दर्शनावरणीयकर्म के विषय में भी समग्र कथन इसी प्रकार समझना चाहिए। (३) वेदनीय कर्म विषयक सभी स्थानों में वैमानिक तक प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए। विशेष-अचरम मनुष्यों में अलेश्य, केवलज्ञानी और अयोगी नहीं होते हैं। प्र. (४) भंते ! अचरम नैरयिक ने क्या मोहनीय कर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा यावत् बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा? (२) दरिसणावरणिज्जं पि एवं चेव गिरवसेसं। (३) वेयणिज्जे सव्वत्थ वि पढम-बिइया भंगा जाव वेमाणियाणं, णवर-मणुस्सेसु अलेस्से, केवली, अजोगी यणत्थि। प. (४) अचरिमे णं भंते ! णेरइए मोहणिज्ज कम्म किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ जावबंधी, न बंधइ, न बंधिस्सइ? १. कृष्णपाक्षिक के अतिरिक्त सभी बोल वाले मनुष्यों में तीसरा चौथा भंग कहा है अतः अनन्तरोपपन्नक मनुष्य उसी भव में मोक्ष जा सकते हैं और उनके पूरे भव में आयुष्य नहीं बांधने का चौथा भंग उनमें घटित हो सकता है। इसी सूत्र पाठ के आधार से जन्म नपुंसक का भी मुक्ति प्राप्त करना सिद्ध होता है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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