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कर्म अध्ययन
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दं.२.असुरकुमारे एवं चेव, णवरं-२. कण्हलेस्से वि चत्तारि भंगा भाणियव्या। सेसं जहा नेरइयाणं। दं.३-११.एवं जाव थणियकुमाराणं।, दं. १२. पुढविकाइयाणं सव्वत्थ वि. ४-११. चत्तारि भंगा। णवरं-कण्हपक्खिए पढम-तइया भंगा।
दं.२. असुरकुमार में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष-कृष्णलेश्यी असुरकुमार में चारों भंग कहने चाहिए। शेष सभी स्थानों में नैरयिकों के समान कहना चाहिए। दं.३-११ इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। दं.१२ पृथ्वीकायिकों के सभी स्थानों में चारों भंग होते हैं।
प. २.तेउलेस्से पुढविकाइयाणं भंते ! आउयं कम्म
किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ जाव
बंधी, न बंधइ, न बंधिस्सइ? उ. गोयमा ! बंधी, न बंधइ, बंधिस्सइ एगो तइओ भंगो।
सेसेसु सव्येसु चत्तारि भंगा। दं. १३, १६. एवं आउकाइय-वणस्सइकाइयाण वि निरवसेसं। दं. १४.१५. तेउकाइय-वाउकाइयाणं सव्वत्थ १-११ वि पढम-तइया भंगा। दं. १७-१९. बेइंदिय, तेइंतिय, चउरिंदियाण वि सव्वत्थ वि१-५/७-११ पढम तइया भंगा। णवर-सम्मत्ते ६. नाणे आभिणिबोहियनाणे सुयणाणे ततियो भंगो। दं.२०.पंचेदिय-तिरिक्खंजोणियाणं ३. कण्हपक्खिए पढम-तइय भंगा। ४. सम्मामिच्छत्ते तइय-चउत्थो भंगो।
विशेष-कृष्णपाक्षिक पृथ्वीकायिक में पहला और तीसरा भंग
पाया जाता है। प्र. २.भंते ! तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव ने आयुकर्म बांधा था,
बांधता है और बांधेगा यावत्
बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा? उ. गौतम ! तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक ने आयुकर्म बांधा था, नहीं
बांधता है और बांधेगा, यह तृतीय भंग पाया जाता है। शेष सभी स्थानों में चारों भंग कहने चाहिए। दं. १३, १६ इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में भी सब कहना चाहिए। दं. १४-१५ तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के सभी स्थानों मे प्रथम और तृतीय भंग पाये जाते हैं। द.१७-१९.द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग पाये जाते हैं। विशेष-इनके सम्यक्त्व, ज्ञान, आमिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान में तृतीय भंग होता है। दं.२० पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में तथा ३. कृष्णपाक्षिक में प्रथम और तृतीय भंग पाये जाते हैं। ४. सम्यग्मिथ्यादृष्टि में तीसरा और चौथा भंग पाया
जाता है। ५. सम्यक्त्व, ६. ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान एवं
अवधिज्ञान, इन पांचों पदों में द्वितीय भंग को छोड़ कर
शेष तीन भंग पाये जाते हैं। . शेष सभी स्थानों में चारों भंग पाये जाते हैं। दं.२१. मनुष्यों का कथन औधिक जीवों के समान है। विशेष-इनके ४. सम्यक्त्व, ६.औधिक ज्ञान (ज्ञान सामान्य)
आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन पदों में द्वितीय भंग को छोड़कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं। शेष सब स्थानों में पूर्ववत् जानना चाहिए। २२-२४ वाणव्यन्तर,ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन असुरकुमारों के समान है। ६. नामकर्म,७. गोत्रकर्म और ८.अन्तरायकर्म का (बन्ध
सम्बन्धी कथन) ज्ञानावरणीयकर्म के समान समझना चाहिए। ४१. अनन्तरोपपन्नक चौबीस दंडकों में आठ कर्मों के बंध भंग
जिस प्रकार पापकर्म के विषय में कहा है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के विषय में भी दण्डक कहना चाहिए। इसी प्रकार आयुकर्म को छोड़कर अन्तरायकर्म तक दण्डक कहना चाहिए।
५. सम्मत्ते ६. णाणे, आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे,
ओहिणाणे एएसु पंचसु विपएसु बिइयविहूणा भंगा।
सेसेसु चत्तारि भंगा। दं.२१. मणुस्साणं जहा जीवाणं णवरं-४. सम्मत्ते, ६. ओहिएणाणे, आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे एएसु बिइयविहूणा भंगा। सेसं तं चेव। दं. २२-२४. वाणमंतर, जोइसिय, वेमाणिया जहा असुरकुमारा। ६. नाम, ७. गोयं, ८. अंतरायं च एयाणि जहा
णाणावरणिज्ज। -विया. स. २६, उ. १, सु. ४४-८८ ४१. अणंतरोववण्णग चउवीसदंडएसुकम्मट्ठ बंधभंगा
जहा पावे तहाणाणावरणिज्जेण विदंडओ,
एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडओ।