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________________ कर्म अध्ययन १०८५ १९. अवकोसे २०.उण्णए, २१.उण्णामे। २२. माया, २३. उवही, २४. नियडी, २५. वलए, २६. गहणे, २७. णूमे, २८. कक्के, २९. कुरूवे, ३०. दंभे, ३१. कूडे, ३२.जिम्मे,३३.किब्बिसिए, ३४.अणायरणया, ३५. गृहणया, ३६. वंचणया, ३७. पलिकुंचणया, ३८.साइजोगे। ३९. लोभे, ४०. इच्छा, ४१. मुच्छा, ४२. कंखा, ४३.गेही, ४४. तिण्हा, ४५. भिज्जा, ४६. अभिज्जा, ४७. कामासा, ४८. भोगासा, ४९. जीवियासा, ५0. मरणासा, ५१. नंदी, ५२. रागे। -सम.५२,सु.१ ११. मोहणिज्जकम्मस्स तीसंबंधट्ठाणा तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। वण्णओ। पुण्णभद्दे नाम चेइए वण्णओ। कोणिय राया धारिणी देवी। सामी समोसढे। परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। अज्जो ! ति समणे भगवं महावीरे बहवे निग्गंथा य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी एवं खलु अज्जो! तीसं मोहणिज्जठाणाई जाई इमाइं इत्थी वा पुरिसो वा अभिक्खणं अभिक्खणं आयारेमाणे वा समायारेमाणे वा मोहणिज्जत्ताए कम्मं पकरेइ। तीसं मोहणियठाणा पण्णत्ता,तं जहा१. जे यावि तसे पाणे, वारिमझे वियाहिया। उदएणक्कम्म मारेइ, महामोहं पकुव्वइ ।। १९. अपकर्ष, २०. उन्नत, २१. उन्नाम (ये ग्यारह मान कषाय के नाम हैं) २२. माया, २३. उपधि, २४. निकृति, २५. वलय, २६. गहन, २७. न्यूम, २८. कल्क, २९. कुरूक, ३०. दम्भ, ३१. कूट, ३२. जिम्ह, ३३. किल्विषिक, ३४. अनाचरणता, ३५. गूहनता, ३६. वंचनता, ३७. परिकुंचनता, ३८. सातियोग, (ये सत्तरह मायाकषाय के नाम हैं) ३९. लोभ, ४०. इच्छा, ४१. मूर्छा, ४२. कांक्षा, ४३. गृद्धि, ४४. तृष्णा, ४५. भिध्या, ४६. अभिध्या, ४७. कामाशा, ४८. भोगाशा, ४९. जीविताशा, ५०. मरणाशा, ५१. नन्दी, ५२. राग, (ये चौदह लोभ-कषाय के नाम हैं।) ११. मोहनीय कर्म के तीस बंध स्थान उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी, (नगरी का वर्णन करना चाहिए) पूर्णभद्र नाम का चैत्य था। वर्णन करना चाहिए। वहाँ कोणिक राजा राज्य करता था, उसके धारणी देवी पटरानी थी। श्रमण भगवान महावीर वहां पधारे। धर्म श्रवण के लिए परिषद् आई, भगवान् ने धर्म का स्वरूप कहा। धर्म श्रवण कर परिषद् चली गई। (इसके बाद) श्रमण भगवन् महावीर ने सभी निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थनियों को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहाहे आर्यों ! जो स्त्री या पुरुष इन तीस मोहनीय स्थानों का सामान्य या विशेष रूप से पुनः-पुनः आचरण व समाचरण करते हैं वे महामोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं। मोहनीय कर्म के तीस स्थान कहे गये हैं, यथा१. जो व्यक्ति किसी त्रस प्राणी को पानी में ले जाकर (पैर आदि से आक्रमण कर) पानी में बार-बार डुबो कर उसे मारता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। २. जो व्यक्ति तीव्र अशुभ समाचरण-पूर्वक किसी त्रस प्राणी को गीले चमड़े की पट्टी से बांध कर मारता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। ३. जो व्यक्ति अपने हाथ से किसी मनुष्य का मुंह बंद कर, उसे कमरे में रोक कर, अन्तर्विलाप करते हुए को मारता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। ४. जो व्यक्ति अनेक जीवों को किसी एक स्थान में अवरुद्ध कर, अग्नि जलाकर उसके धुएं से मारता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। ५. जो व्यक्ति संक्लिष्ट चित्त से किसी प्राणी के सर्वोत्तम अंग (सिर) पर प्रहार कर, उसे खंड-खंड कर फोड़ देता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ६. जो व्यक्ति बार-बार प्रणिधि से (वेश बदल कर) किसी मनुष्य को निर्जन स्थान में फलक या डंडे से मार कर खुशी मनाता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। ७. जो व्यक्ति गोपनीय आचरण कर उसे छिपाता है, कपट द्वारा माया को ढाँकता है, असत्यवादी है, यथार्थ का अपलाप करता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। २. सीसावेढेणं जे केइ, आवेढेइ अभिक्खणं। तिव्वासुभसमायारे, महामोहं पकुव्वइ । ३. पाणिणा संपिहित्ताणं सोयमावरिय पाणिणं। अंतो नदंतं मारेइ महामोहं पकुव्वइ॥ ४. जायतेयं समारब्भ बहुं ओरुभिया जणं। अंतोधूमेण मारेइ महामोहं पकुव्वइ॥ ५. सीसम्मि जे पहणइ उत्तमंगम्मि चेयसा। विभज्ज मत्थयं फाले महामोहं पकुव्वइ॥ ६. पुणो पुणो पणिहीए हणित्ता उवहसे जणं। फलेणं अदुव दंडेणं महामोहं पकुव्वइ ।। ७. गूढायारी निगृहेज्जा मायं मायाए छायए। असच्चवाई णिण्हाई महामोहं पकुव्वइ ।।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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