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________________ कर्म अध्ययन १०७९ ज्ञानावरण आदि कर्मों का वेदन करता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बंध करते हैं, इसका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ज्ञानावरणीय कर्म का वेदन करता हुआ जीव सात, आठ, छह या एक कर्मप्रकृति का बंध करता है। दर्शनावरणीय एवं अन्तराय कर्म का वेदन करने वाले के भी इसी प्रकार बंध होता है। वेदनीय कर्म का वेदन करते हुए जीव के भी सात, आठ, छह या एक का बंध होता है किन्तु वह कदाचित् अबंधक भी होता है। आयु, नाम और गोत्र कर्म का वेदन करते हुए जीव के भी वेदनीय की भांति बंध या अबंध होता है। ___ अष्टविध कर्मों का बंध मूलतः दो कारणों से होता है-१. राग से और २. द्वेष से। इन दोनों में चतुर्विध कषाय का समावेश हो जाता है। राग को माया और लोभ के रूप में दो प्रकार का कहा गया है तथा द्वेष को क्रोध और मान के भेद से दो प्रकार का माना गया है। ज्ञानावरणादि का बंध करता हुआ जीव कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है, इस पर आगम में विचार किया गया है। उसके अनुसार वेदनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बंध करता हुआ जीव नियमतः आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है, किन्तु वेदनीय कर्म को बांधता हुआ जीव सात, आठ या चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय का वेदन करने वाला जीव आठ या सात (मोहनीय को छोड़कर) कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र का वेदन करता हुआ जीव सात, आठ या चार प्रकृतियों का वेदन करता है। केवलज्ञान, केवलदर्शन के धारक अर्हत् जिन केवली चार कर्मांशों का वेदन करते हैं-१. वेदनीय, २. आयु, ३. नाम और ४. गोत्र का। एकेन्द्रिय जीवों में कर्म प्रकृतियों के स्वामित्व, बंध और वेदन का सूक्ष्म कथन भी निरूपित है। इसमें कर्मप्रकृतियों के वेदन का निरूपण करते हुए प्रसिद्ध ८ कर्मप्रकृतियों में १. श्रोत्रेन्द्रियावरण, २. चक्षुरिन्द्रियावरण, ३. घ्राणेन्द्रियावरण, ४. जिह्वेन्द्रियावरण, ५. स्त्रीवेदावरण और ६. पुरुषवेदावरण को मिलाकर १४ कर्मप्रकृतियों को उल्लेख किया गया है। कांक्षामोहनीय की चर्चा मात्र व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में है। उत्तरवर्ती कर्मग्रंथों में इसकी चर्चा नहीं है। इसी प्रकार सम्पूर्ण दिगम्बर साहित्य में कांक्षामोहनीय का कोई उल्लेख नहीं है। इस दृष्टि से आगम में निरूपित कांक्षामोहनीय की चर्चा महत्वपूर्ण है। कांक्षामोहनीय कर्म एक प्रकार का दर्शन मोहनीय कर्म है जो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, भेदसामयन्ति और कलुष सामयन्ति से युक्त होता है। कांक्षामोहनीय का बंध योग और प्रमाद से होता है, कषाय की उसमें मुख्यता नहीं है। सभी चौबीस दण्डकों में कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन होता है। गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न किया कि पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन किस प्रकार करते हैं ? भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम! उन जीवों को ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन या वचन नहीं होता कि हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं किन्तु वे उसका वेदन अवश्य करते हैं। यह सत्य है, निःशंक है तथा जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित है। श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। वे अनेक कारणों से यथा-ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावचनिकान्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। जीव स्वयं ही कांक्षामोहनीय कर्म का उपार्जन करते हैं, चय करते हैं, उपचय करते हैं, उदीरणा करते हैं और निर्जरा करते हैं। विभिन्न कर्म प्रकृतियों के बंध के विशेष कारण भी होते हैं, यथा-सातावेदनीय कर्म का बंध प्राणानुकम्पा से, भूतानुकम्पा से, जीवानुकम्पा से, सत्वानुकम्पा से, बहुत से प्राण यावत् सत्व को दुःख न देने से, शोक नहीं करने से, विलाप न करने से, पीड़ा न देने से और परिताप न देने से करता है। इसके विपरीत आचरण से असातावेदनीय कर्म का बंध होता है। हमें ज्ञान कठिनाई से क्यों होता है, एतदर्थ दुर्लभ बोधि वाले कर्मबंध के हेतुओं का निर्देश है। वे हेतु हैं-अर्हन्तों का अवर्णवाद (निन्दापरक कथन) करना, अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करना, आचार्य, उपाध्याय का अवर्णवाद करना, चतुर्विध संघ का अवर्णवाद करना, तप और ब्रह्मचर्य के विपाक से दिव्य गति को प्राप्त करने वाले देवों का अवर्णवाद करना। इसके विपरीत आचरण से सुलभ बोधि कर्म का बंध होता है। इसी प्रकार आयु कर्म चार प्रकार का है और उनके बंध के हेतु भिन्न-भिन्न हैं। नरकायु का बंध महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध और मांस भक्षण से होता है। तिर्यवायु का बंध माया, निकृत (ठगाई) असत्यवचन और कूट तोल माप से होता है। मनुष्यायु का बंध प्रकृति भद्रता, प्रकृति विनीतता, सरल हृदयता और अमत्सरता से तथा देवायु का बंध सराग संयम, संयमासंयम, बाल तप और अकाम निर्जरा से होता है। आयु दो प्रकार की होती है-अद्धायु और भवायु। अद्धायु भवान्तरगामिनी होती है, भवायु उसी भव की आयु होती है। अद्धायु दो प्रकार के जीवों की होती है-मनुष्यों की और तिर्यक् पंचेन्द्रियों की। भवायु भी दो प्रकार के जीवों की होती है-देवों की और नैरयिकों की। देव और नैरयिक पूर्णायु का पालन करते हैं जबकि मनुष्य और तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के अकालमरण भी संभव है। प्राणियों की हिंसा करने, असत्य भाषण करने, तथारूप श्रमण ब्राह्मण को अप्रासुक अशन पानादि से प्रतिलाभित करने से जीव अल्पायु का बंध करता है किन्तु इन्हीं हेतुओं से वह अशुभ दीर्घायु का बंध करता है। इनके विपरीत आचरण से वह शुभ दीर्घायु एवं अशुभ अल्पायु का बंध करता है। आयु परिणाम गति, बन्धक स्थिति आदि के भेद से नौ प्रकार का कहा गया है। जाति नाम-निधत्तायु, गतिनामनिधत्तायु, स्थितिनामनिधत्तायु आदि के भेद से आयु बंध छह प्रकार का है। नैरयिक से लेकर वैमानिक देवों तक छह प्रकार का आयुबंध प्रतिपादित है। नैरयिक एवं देव पर-भव की आयु का बंध नियमतः छह मास आयु शेष रहने पर करते हैं। पृथ्वीकायिक से विकलेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-१. सोपक्रम आयु वाले, २. निरुपक्रम आयु वाले। निरुपम आयु वाले नियमतः आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहने पर पर-भव की आयु का बंध करते हैं तथा सोपक्रम आयु वाले कदाचित् तीसरे भाग में परभव की आयु का बंध करते हैं, कदाचित् आयु के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर पर-भव की आयु का बंध करते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य दो प्रकार के होते हैं
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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