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________________ कषाय अध्ययन ४. अवलेहणिय केतणा समाणं मायमणुपविट्ठे जीवे कालं करे देवेसु उववज्जइ । (घ) चत्तारि वत्था पण्णत्ता, तं जहा १. किमिरागरत्ते, ३. खंजणरागरले २. कमरागरते, ४. हलिद्दरागरत्ते । एवामेव चउव्विहे लोभे पण्णत्ते, तं जहा १. किमिरागरत्तवत्यसमाणे जाव ४. हलिद्दरागरतयत्यसमाणे । १. किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठे जीवे कालं करेइ नेरइएस उबवज्जइ । २. कद्दमरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठे जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जइ । ३. खंजण रागरतवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठे जीवे काल करे मणुस्सेसु उववज्जइ । ४. हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठे जीवे कालं करे देवेसु उववज्जइ । -ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. २९३ (च) चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा १. कद्दमोदए, २. खंजणोदए, ३. वालुओदए, ४. सेलोदए । एवामेव चउव्विहे भावे पण्णत्ते, तं जहा १. कद्दमोदगसमाणे जाव ४. सेलोदगसमाणे । १. कद्दमोदगसमाणं भावमणुपविट्ठे जीवे कालं करेइ रइएस उबवण २. खंजणोदगसमाणं भावमणुपविट्ठे जीवे काल करेइ तिरिक्खजोगिएसु उववज्जद, ३. वालुओदनसमाणं भावमणुपविट्ठे जीवे काल करेड़ मणुस्सेसु उवयज्जद, ४. सेलोदगसमाणं भावमणुपविडे जीवे काल करेइ देवेसु उववज्जइ । - ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३११ (छ) चत्तारि आवत्ता पण्णत्ता, तं जहा १. खरावत्ते, ३. गूढायते, १. खरावत्तसमाणे कोहे, २. उन्नयावत्तसमाणे माणे, ३. गूढावत्तसमाणे माया, ४. आमिसायतसमाणे लोभे । २. उन्नयायते, ४. आमिसावत्ते । एवामेव चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा १. खरावत्तसमाण कोहमणुपविट्ठे जीवे कालं करेइ नेरइएस उवव १०७१ ४. अवलेखनिका केतन के समान माया में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो देवों में उत्पन्न होता है। यथा (घ) वस्त्र चार प्रकार के कहे गये हैं, १. कृमिरागरक्त, ३. खंजन रागरक्त, ४. हलिद्रारागरक्त । इसी प्रकार लोभ भी चार प्रकार का कहा गया है, यथा कृमिरागरक्त वस्त्र के समान यावत् हलिद्रारागरक्त वस्त्र के समान (हल्दी के रंग से रंगे वस्त्र के समान) १. कृमिरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो नैरयिकों में उत्पन्न होता है। १. ४. २. कर्दमरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है। २. कर्दमरागरक्त, ३. खंजनरागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो मनुष्यों में उत्पन्न होता है। ४. हलिद्वारागरक्त वस्त्र के समान लोभ में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो देवों में उत्पन्न होता है। (च) उदक (जल) चार प्रकार का कहा गया है, यथा १. कर्दमोदक (कीचड़ ) युक्त जल २. खंजनोदक (पहिये की नाभि के कीट से युक्त जल) १. ४. १. ३. वालुकोदक (बालु-रेतयुक्त जल) ४. शैलोदक (पर्वतीय जल) इसी प्रकार जीवों के भाव ( राग-द्वेष रूप क्रोधादि कषाय परिणाम) चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा कर्दमोदक समान यावत् शैलोदक समान । कर्दमोदक समान भाव में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो नैरयिकों में उत्पन्न होता है। २. खंजनोदक समान भाव में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है। ३. बालुकोदक समान भाव में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो मनुष्यों में उत्पन्न होता है। ४. शैलोदक समान भाव में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो देवों में उत्पन्न होता है। (छ) चार आवर्त (चक्राकार) घुमाव (भंवर) कहे गये हैं, यथा२. उन्नतावर्त १. खरावर्त्त, ३. गूढावर्त, ४. आमिषावर्त । इसी प्रकार कषाय भी चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा १. खरावर्त समान क्रोध, २. उन्नतावर्त समान मान, ३. गूढावर्त समान माया, ४. आमिषावर्त समान लोभ । १. खरावर्त समान क्रोध में प्रवर्तमान जीव यदि काल करे तो नैरयिकों में उत्पन्न होता है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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