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________________ १०४८ धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा कोडी | एवं सव्वत्थ जाव पुव्वविदेह - अवरविदेह कम्मभूमिग मणुस्सपुरिसाणं । अकम्मभूमिग मणुस्सपुरिसाणं जहा अकम्मभूमिग मस्सित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं । देवाणं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा जाव सव्वत्थसिद्धगाणं । - जीवा. पडि. २, सु. ५४ प. नपुंसएणं भंते! नपुंसए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तरुकालो, प. णेरइयनपुंसए णं भंते ! णेरइयनपुंसएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । एवं पुढवी ठिई भाणियव्वा । प. तिरिक्खजोणियनपुंसए णं भन्ते ! तिरिक्खजोणिय नपुंसएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो । एवं एगिंदियनपुंसगस्स वण्णस्सइकाइयस्स वि एवमेव । सेसाणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं - असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी - ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोया । बेइंदिय-तेइंदिय- चउरिदियनपुंसगाण य जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । प. पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसए णं भन्ते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियनपुंसए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं कोड एवं जलयर-तिरिक्ख चउप्पय-थलयर - उरपरिसप्प भुयपरिसप्प महोरगाण वि प. मणुस्सनपुंसगस्स णं भंते ! मणुस्सनपुंसएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्यकोडितं । धम्मचरणं पडुच्च जहणणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं सूणा पुव्वकोडी | द्रव्यानुयोग - (२) धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रह सकता है। इसी प्रकार पूर्वविदेह, अपरविदेह कर्मभूमिक मनुष्य-पुरुषों तक की सर्वत्र कायस्थिति जाननी चाहिए। अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुषों यावत् अन्तर्द्वीपक मनुष्य पुरुषों के सम्बन्ध में अकर्मभूमिक मनुष्य स्त्रियों के समान जानना चाहिए। देवपुरुषों की जो भवस्थिति कही है वही सर्वार्थसिद्ध तक के देव पुरुषों की कायस्थिति जाननी चाहिए। प्र. भंते ! नपुंसक, नपुंसक के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? उ. गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रह सकता है। प्र. भंते! नैरयिक नपुंसक जीव नैरयिक नपुंसक के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? उ. गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। इसी प्रकार रत्नप्रभादि पृथ्वियों में भी काल स्थिति कहनी चाहिए। प्र. भंते! तिर्यग्योनिक नपुंसक जीव तिर्यग्योनिक नपुंसक के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रह सकता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय नपुंसक तथा वनस्पतिकायिक नपुंसक भी इतने काल तक रह सकता है। शेष (पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक) नपुंसकों का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल अर्थात् काल से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी और क्षेत्र से असंख्यात लोक प्रमाण है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसकों का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल है। प्र. भंते! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक नपुंसक-पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक नपुंसक के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व तक रह सकता है। इसी प्रकार जलचर, चतुष्पद, स्थलचर, उरपरिसर्पभुजपरिसर्प महोरग पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक नपुंसकों का काल जानना चाहिए। प्र. भंते! मनुष्य नपुंसक मनुष्य नपुंसक के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? उ. गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा - जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्व कोटि पृथक्त्व तक रह सकता है। धर्माचरण की अपेक्षा - जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि पृथक्त्व तक रह सकता है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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