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________________ वेद अध्ययन १०४३ ३. मणुस्सासम्मुच्छिममणुस्सा-नपुंसगवेया -जीवा. पडि. १, सु. ४१ गब्भवक्कंतियमणुस्सा-इत्थिवेया वि, पुरिसवेया वि, नपुंसगवेया वि,अवेया वि -जीवा. पडि.१, सु.४१ ४. देवाइत्थिवेया वि, पुरिसवेया वि, नो नपुंसगवेया। -जीवा. पडि.१, सु.४२ ६. एगसमए एगवेय वेयण-परूवणंप. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति भासंति पण्णवेंति परूवेंति एवं खलु नियंठे कालगे समाणे देवब्भूएणं अप्पाणेणं१. से णं तत्थ नो अन्ने देवे नो अन्नेसिं देवाणं देवीओ ____ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय-परियारेइ। ३.मनुष्यसम्मूर्छिम मनुष्य- नपुंसकवेद वाले हैं। गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य-स्त्रीवेद वाले भी हैं, पुरुषवेद वाले भी है, नपुंसकवेद वाले भी हैं और अवेदी भी हैं। ४.देवस्त्री वेद वाले भी हैं और पुरुष वेद वाले भी हैं, किन्तु नपुंसकवेद वाले नहीं हैं। ६. एक समय में एक वेद-वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, बताते हैं, प्रज्ञापना करते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ (मुनि) मरने पर देव होता हुआ स्वयं१. वह वहाँ (देवलोक में) दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके परिचारणा (मैथुन-सेवन) नहीं करता, २. अपनी देवियों को वश में करके या आलिंगन करके उनके साथ भी परिचारणा नहीं करता। ३. परन्तु वह देव वैक्रिय से स्वयं ही देवी का रूप बनाकर उसके साथ परिचारणा करता है। इस प्रकार एक जीव एक ही समय में दो वेदों का अनुभव (वेदन) करता है, यथा१. स्त्रीवेद, २. पुरुषवेद। १. जिस समय स्त्रीवेद को वेदता (अनुभव करता) है, तब पुरुषवेद को भी वेदता है। २. जिस समय पुरुषवेद को वेदता है, उस समय वह स्त्रीवेद को भी वेदता है। स्त्रीवेद का वेदन करता हुआ पुरुषवेद को भी वेदता है, पुरुषवेद का वेदन करता हुआ स्त्रीवेद को भी वेदता है। अतः एक ही जीव एक समय में दोनों वेदों को वेदता है, यथा २. णो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय:अभिजुंजिय परियारेइ। ३. अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउब्विय परियारेइ एगे वियणं जीवे एगेणं समएणं दो वेए वेएइ,तं जहा १. इथिवेयं वा, २. पुरिसवेयं वा। १. जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ, २. जं समयं पुरिसवेयं वेएइ तं समयं इत्थिवेयं वेएइ, इत्थिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इथिवेयं वेएइ, एवं खलु एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेयं वेएइ, तं जहा१. इत्थिवेयं वा, २. पुरिसवेयं वा। से कहमेयं भंते ! एवं? उ. गोयमा ! जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्वंति जाव इथिवेयं वा पुरिसवेयं वा। जे ते एवमहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि १. स्त्रीवेद, २. पुरुषवेद भन्ते ! क्या यह (अन्यतीर्थिकों का) कथन सत्य है? उ. हे गौतम ! वे अन्यतीर्थिक जो यह कहते हैं यावत् स्त्रीवेद पुरुषवेद का वेदन एक साथ करते हैं, उनका वह कथन मिथ्या है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ किकोई निर्ग्रन्थ मरकर, किन्हीं महर्द्धिक यावत् महाप्रभावयुक्त, दूरगमन करने की शक्ति से सम्पन्न, दीर्घकाल की स्थिति (आयु) वाले देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है, वहाँ वह महती ऋद्धि से युक्त होता है यावत् दशों दिशाओं में उद्योत करता है, विशिष्ट कान्ति से शोभायमान होता है यावत् अत्यन्त रूपवान् देव होता है। एवं खलु नियंठे कालगए समाणे अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति महिड्ढिएसु जाव महाणुभागेसुदूरगइसु चिरट्ठिइएसु। से णं तत्थ देवे भवइ महिड्ढिए जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे जाव पडिरूवे।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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