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________________ वेद अध्ययन : आमुख काम वासना का अनुभव वेद है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद के भेद से यह तीन प्रकार का होता है। यहाँ वेद शब्द स्त्री, पुरुष आदि के बाह्यलिंग का द्योतक नहीं है। बाह्यलिंग तो शरीर नाम कर्म का फल है। वेद मोह कर्म के उदय का परिणाम है। हाँ, यह अवश्य है कि बाह्यलिंग से स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक की पहचान होती है तथा वेद से उनका गहरा सम्बन्ध है। प्रायः स्त्री में स्त्रीवेद, पुरुष में पुरुषवेद एवं नपुंसक में नपुंसक वेद पाया जाता है। वेद की पूर्ति का साधन लिंग है। नवें गुणस्थान के बाद तीन वेदों में से किसी का भी उदय नहीं रहता। वीतरागी आत्मा के सत्ता से भी वेद का क्षय हो जाता है किन्तु शरीर के साथ लिंग बना रहता है। तीन लिंगों में से किसी के भी रहते हुए वीतराग अवस्था प्राप्त हो सकती है जैसा कि चौदह प्रकार के सिद्धों में स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध एवं नपुंसक लिंग सिद्धों की गणना इसकी साक्षी है। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय में जो कामवासना है वह नपुंसक वेद के रूप में है। इसी प्रकार तीन विकलेन्द्रियों, सम्मूर्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, सम्मूर्छिम मनुष्य एवं समस्त नैरयिक जीवों में भी नपुंसक वेद होता है। यह वेद महानगर के दाह के समान कष्टदायी है। देवों में दो वेद होते हैं-स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद। इनमें नपुंसकवेद नहीं होता। नैरयिकों में नपुंसक के अलावा दोनों वेद नहीं होते। गर्भ से पैदा होने वाले तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में तीनों वेद होते हैं। चार गतियों के चौबीस दण्डकों में मनुष्य का ही एक दण्डक ऐसा है जो अवेदी भी हो सकता है, अर्थात् काम-वासना का नाश मात्र मनुष्यों में ही संभव है। कोई भी जीव एक समय में एक से अधिक वेदों का अनुभव नहीं करता। स्त्रीवेद का उदय होने पर स्त्री पुरुष की अभिलाषा करती है तथा पुरुषवेद का उदय होने पर पुरुष स्त्री की अभिलाषा करता है। स्त्रीवेद कंडे की अग्नि के समान एवं पुरुषवेद दावाग्नि की ज्वाला के समान माना गया है। सवेदक जीव तीन प्रकार के होते हैं-१. अनादि अपर्यवसित, २. अनादि सपर्यवसित और ३. सादि सपर्यवसित। जिन जीवों में अनादिकाल से सवेदकता चली आ रही है एवं कभी समाप्त नहीं होती वे अनादि अपर्यवसित भेद में आते हैं। जिनमें समाप्त हो जाती है उन्हें अनादि सपर्यवसित सवेदक माना जाएगा। अंतिम भेद उन जीवों में होता है जो एक बार अवेदी होकर (ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर)पुनः सवेदी हो जाता है। ऐसे जीव पुनः अवेदी हो सकते हैं। अवेदक जीव दो प्रकार के होते हैं-१. सादि अपर्यवसित एवं २. सादि सपर्यवसित। जो जीव एक बार अवेदक होने के बाद पुनः सवेदक नहीं होते वे प्रथम प्रकार में तथा पुनः सवेदक होने वाले द्वितीय प्रकार में आते हैं। सादि सपर्यवसित जीवों की अवेदकता जघन्य एक समय एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है। स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक की कायस्थिति का चौबीस दण्डकों में प्रस्तुत अध्ययन में विशद निरूपण है। उसके पश्चात् सवेदक एवं अवेदक जीवों के अन्तरकाल का प्ररूपण है। अल्प-बहुत्व की चर्चा महत्त्वपूर्ण है। सवेदक, स्त्रीवेदक, पुरषवेदक, नपुंसकवेदक और अवेदक जीवों में पुरुषवेदक सबसे अल्प हैं। उनसे स्त्रीवेदक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवेदक अनन्तगुणे हैं। उनसे नपुंसकवेदक अनन्तगुणे हैं। उनसे सवेदक विशेषाधिक हैं। स्त्री, पुरुष एवं नपुंसकों के विभिन्न दण्डकों में प्रदत्त पृथक् अल्प-बहुत्व के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समस्त स्त्रियों में मनुष्य स्त्रियाँ, समस्त पुरुषों में मनुष्य पुरुष एवं समस्त नपुंसकों में मनुष्य नपुंसक सबसे अल्प हैं। स्त्रियों में देव स्त्रियां, पुरुषों में देव पुरुष एवं नपुंसकों में तिर्यक् नपुंसक सर्वाधिक हैं। स्त्री, पुरुष एवं नपुंसकों में पुरुष सबसे अल्प हैं, स्त्रियाँ उनसे संख्यातगुणी हैं, नपुंसक उनसे अनंतगुणे हैं। मैथुन तीन प्रकार का है-दिव्य, मानुष्य एवं तिर्यक्योनिक। नैरयिक मिथुन भाव को प्राप्त नहीं होते क्योंकि वे नपुंसक होते हैं। नपुंसक जीव भी अब्रह्म (मैथुन) का सेवन करते हैं किन्तु मिथुन भाव से रहित होकर । मैथुन प्रवृत्ति (परिचारणा) पाँच प्रकार की कही गई है-१. काय परिचारणा, २. स्पर्श परिचारणा, ३. रूप परिचारणा, ४. शब्द परिचारणा एवं ५. मनः परिचारणा। देवों में पाँचों प्रकार की परिचारणा मिलती है। भवनपति से लेकर ईशानकल्प के देव काय परिचारक होते हैं। सनत् कुमार और माहेन्द्र कल्प के देव स्पर्श परिचारक, ब्रह्मलोक एवं लान्तक के देव रूप परिचारक, महाशुक्र एवं सहस्रार कल्प के देव शब्द परिचारक तथा आनत, प्राणत, आरण व अच्युतकल्पों के देव मनः परिचारक होते हैं। नौ ग्रैवेयक एवं पाँच अनुत्तर विमान के देव मैथुन प्रवृत्ति से रहित होते हैं। संवास के विविध रूपों का निरूपण करने के अनन्तर इस अध्ययन में काम के चार प्रकार प्रतिपादित हैं-१. शृंगार, २. करुण, ३. बीभत्स और ४. रौद्र। देवों में काम शृंगार प्रधान, मनुष्यों में करुण प्रधान, तिर्यञ्चों में बीभत्स प्रधान एवं नैरयिकों में रौद्र रस प्रधान होता है। इस प्रकार इस अध्ययन में वेद पर सर्वाङ्गीण सामग्री उपलब्ध है। (१०४०)
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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