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________________ १०१८ विहल-मलिन-दुब्बला किलंता कासंता वाहिया य आमाभिभूयगत्ता परुढ-नह-केस-मंसुरोमा छगमुत्तमि णियगंमि खुत्ता। तत्थेव मया अकामका बंधिऊण पादेसु कड्ढिया खाइआए छूटा। तत्थ य विग-सुणग-सियाल-कोल-मज्जार वंद-संदंसगतुंडपक्खिगण-विविहमुहसयल-विलुत्तगत्ता कय विहंगा। केइ किमिणा य कुहियदेहा। अणिट्ठवयणेहिं सप्पमाणा "सुट्ठ कयं जं मउत्ति पावो" तुट्टेणं जणेणं हम्ममाणा लज्जावणका च होंति सयणस्स विय दीहकालं। -पण्ह.आ.३,सु.७३-७५ ३९. तकराणं दुग्गइ परंपरा मयासंता पुणो परलोगसमावन्ना नरए गच्छंति, निरभिरामे अंगारपलित्तक-कप्प-अच्चत्थ सीयवेदन-अस्साउदिन्न सय य दुक्ख सय समभिदुए। द्रव्यानुयोग-(१) वे सदा विह्वल या विफल, मलिन और दुर्बल बने रहते हैं। थके हारे या मुझाए रहते हैं, कोई-कोई खांसते हैं और अनेक रोगों व अजीर्ण से ग्रस्त रहते हैं। उनके नख, केश और दाढ़ी-मूंछों के बाल तथा रोम बढ़ जाते हैं, वे कारागार में अपने ही मल-मूत्र में लिप्त रहते हैं। जब इस प्रकार की दुस्सह वेदनाएं भोगते-भोगते वे मरने की इच्छा न होने पर भी मर जाते हैं (तब भी उनकी दुर्दशा का अन्त नहीं होता) उनके शव के पैरों में रस्सी बांध कर कारागार से बाहर निकाला जाता है और किसी खाई गड्ढे में फेंक दिया जाता है। तत्पश्चात् भेड़िया, कुत्ते, सियार, शूकर तथा संडासी के समान मुख वाले अन्य पक्षी अपने मुखों से उनके शव को नोच डालते हैं। कई शवों को पक्षी, गीध आदि खा जाते हैं। कई चोरों के मृत कलेवर में कीड़े पड़ जाते हैं, उनके शरीर सड़ गल जाते हैं। उसके बाद भी अनिष्ट वचनों से उनकी निन्दा की जाती है, उन्हें धिक्कारा जाता है कि-'अच्छा हुआ जो पापी मर गया अथवा मारा गया।' उसकी मृत्यु से सन्तुष्ट हुए लोग उसकी निन्दा करते हैं। इस प्रकार वे पापी चोर अपनी मृत्यु के पश्चात् भी दीर्घकाल तक अपने स्वजनों को लज्जित करते रहते हैं। ३९. तस्करों की दुर्गति परंपरा (जीवन का अन्त होने पर) चोर परलोक को प्राप्त होकर नरक में उत्पन्न होते हैं। वे नरक निरभिराम हैं अर्थात् वहां कोई भी अच्छाई नहीं है और आग से जलते हुए घर के समान अतीव उष्ण वेदना वाले या अत्यन्त शीत वेदना वाले और (तीव्र) असातावेदनीय कर्म की उदीरणा के कारण सदैव सैकड़ों दुःखों से व्याप्त होते हैं। (आयु पूरी करने के पश्चात्) नरक से उद्वर्तन करके अर्थात् निकल कर फिर तिर्यञ्चयोनि में जन्म लेते हैं। वहां भी वे नरक जैसी असातावेदना का अनुभव करते हैं। उस तिर्यञ्चयोनिक में अनन्त काल भटकने के पश्चात् अनेक बार नरकगति और लाखों बार तिर्यञ्चगति में जन्म-मरण करते-करते यदि मनुष्यभव पा लेते हैं तो वहां पर वे अनार्यों और नीच कुल में उत्पन्न होते हैं कदाचित् आर्यकुल में जन्म मिल गया तो वहां भी लोकबाह्य-बहिष्कृत होते हैं। पशुओं जैसा जीवन-यापन करते हैं, कुशलता से रहित होते हैं अर्थात् विवेकहीन होते हैं, अत्यधिक कामभोगों की तृष्णा वाले और अनेकों बार नरक-भवों में पहले उत्पन्न होने के कुसंस्कारों के कारण नरकगति में उत्पन्न होने योग्य पापकर्म करने की प्रवृत्ति वाले होते हैं। जिससे संसारचक्र में परिभ्रमण कराने वाले अशुभ कर्मों का बन्ध करते हैं। वे धर्मशास्त्र के श्रवण से वंचित रहते हैं, वे अनार्य-शिष्टजनोंचित आचार-विचार से रहित क्रूर नृशंस-निर्दय मिथ्यात्व के पोषक शास्त्रों को अंगीकार करते हैं। एकान्ततः हिंसा में ही उनकी रुचि होती है। इस प्रकार रेशम के कीड़े के समान वे अष्टकर्म रूपी तन्तुओं से अपनी आत्मा को प्रगाढ बन्धनों से जकड़ लेते हैं और अनन्त काल तक इस प्रकार के संसार सागर में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। तओ वि उव्वट्टिया समाणा, पुणो वि पवजंति, तिरियजोणिं तहिं पि निरयोवमं अणुहवेंति वेयणं, ते अणंतकालेणं जइ नाम कहिं वि मणुयभावं लभंति, णेगेहि णिरयगइगमणतिरिय-भवसयसहस्स-परियट्टेहिं, तत्थ वि य भमंतऽणारिया नीचकुलसमुप्पण्णा, आरियजणेवि लोकबज्झा, तिरिक्खभूया य अकुसला-काम-भोगतिसिया, जहिं निबंधति निरयवत्तणि-भवप्पवंच-करण पणोल्लि पुणो वि संसारावत्त-णेम-मूले। धम्म-सुइ-विवज्जिया अणज्जा कूरा मिच्छत्त-सुइपवन्ना य होंति, एगंतदंडरुइणो, वेढेंता कोसीकाकारकीडोव्व अप्पगं अट्ठ कम्मतंतुघणबंधणेणं। -पण्ह.आ.३,सु.७६
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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