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________________ क्रिया अध्ययन एस ठाणे आरिए जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एंगतसम्मे साहू। । ९६३ ) यह स्थान आर्य यावत् सब दुःखों के क्षय का मार्ग, एकांत सम्यक् और सुसाधु है। यह दूसरे स्थान धर्मपक्ष का विकल्प कहा गया है। दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए। -सुय. सु. २, अ.२, सु.७१४ ६६. ओहेण अकिरियाएगा अकिरिया -सम.सम.१,सु.६ ६७. अकिरिया फलं प. से णं भंते ! अकिरिया किं फला? उ. गोयमा ! सिद्धिपज्जवसाणफला पण्णत्ता', -विया. स. २, उ.५, सु.२६ ६८. सुत्त-जागर-बलियत्त-दुब्बलियत्त-दक्खत्तआलसियत्ताई पडुच्च साहु-असाहु परूवणंप. सुत्तत्तं भंते ! साहू, जागरियत्तं साहू ? ६६. सामान्य रूप से अक्रिया अक्रिया एक है। ६७. अक्रिया का फल प्र. भंते ! जक्रिया का क्या फल है? उ. गौतम ! उसका अंतिम फल सिद्धि प्राप्त करना कहा है। उ. जयंति ! अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ "अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू ?" उ. जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया, अहम्माणुया, अहम्मिट्ठा, अहम्मक्खाई, अहम्मपलोई अहम्मपलज्जणा, अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू। एए णं जीवा सुत्ता समाणा नो बहूणं पाणाणं, भूयाणं, जीवाणं, सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए वटंति। एए णं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा नो बहूहिं अहम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू। जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणया जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साहू। एए णं जीवा जागरा समाणा बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए जाव अपरियावणयाए वट्टति। एए णं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा, परं वा, तदुभयं वा बहूहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। ६८. सुप्त-जागृत-सबलत्व-दुर्बलत्व-दक्षत्व-आलसित्व की अपेक्षा साधु-असाधुपने का प्ररूपणप्र. भंते ! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है या जागृत रहना अच्छा है? उ. जयन्ती ! कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है?" उ. जयन्ती ! जो ये अधार्मिक, अधर्मानुसरणकर्ता, अधर्मिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले, अधर्मावलोकनकर्ता, अधर्म में आसक्त, अधर्माचरण करने वाले और अधर्म से ही आजीविका करने वाले हैं। उन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है, क्योंकि ये जीव सुप्त रहते हैं तो अनेक प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख शोक यावत् परिताप देने में प्रवृत्त नहीं होते। सोये रहने पर ये जीव स्वयं को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक अधार्मिक क्रियाओं (प्रपंचों) में संयोजित नहीं करते। इसलिए इन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है। जयन्ती ! जो ये धार्मिक, धर्मानुसारी यावत् धर्म से ही अपनी आजीविका करने वाले हैं, उन जीवों का जागृत रहना अच्छा है, क्योंकि ये जीव जागृत हों तो बहुत से प्राणों यावत् सत्त्वों को दुःख यावत् परिताप देने में प्रवृत्त नहीं होते। ऐसे (धर्मिष्ठ) जीव जागृत रहते हुए स्वयं को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक धार्मिक प्रवृत्तियों में संयोजित करते रहते हैं। ऐसे जीव जागृत रहते हुए धर्मजागरणा से अपने आपको जागृत करने वाले होते हैं। अतः इन जीवों का जागृत रहना अच्छा है। एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति। एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साहू। १. (क) प. साणं भंते ! अकिरिया किं फला? उ. निव्वाणफला, प. से णं भंते ! निव्वाणे किं फले? उ. सिद्धगइगमणपज्जवसाणफले पण्णत्ते, समणाउसो!-ठाणं अ.३, सु. १९५ -उत्त. अ. २९, सु. २९
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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