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________________ ९५९ क्रिया अध्ययन असहेज्जादेवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किन्नरकिंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगादीएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा, इणमेव निग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कंखिया निव्वितिगिच्छा लद्धट्टा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ता, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अढे, अयं परमठे, सेसे अणठे, ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तंतेउरपरघरपवेसा चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठ पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा। समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण- पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह कंबल-पायपुंछणेणं, ओसहभेसज्जेणं, पीढ-फलग-सेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा, बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। सत्य के प्रति स्वयं निश्चल, देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित नहीं होते हैं। इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका रहित, कांक्षा रहित, विचिकित्सा रहित, यथार्थ को सुनने वाले, ग्रहण करने वाले, उस विषय में प्रश्न करने वाले, उसका विनिश्चय करने वाले, उसे जानने वाले और प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि-मज्जा वाले होते हैं। हे आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन यथार्थ है, यह परमार्थ है, शेष अनर्थ है, (ऐसा मानने वाले) वे अर्गला को ऊंचा और दरवाजे को खुला रखने वाले, अन्तःपुर और दूसरों के घर में बिना किसी रुकावट के प्रवेश करने वाले, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन करने वाले हैं। वे श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोंछन, औषध,भैषज, पीठ-फलक शय्या और संस्तारक का दान देने वाले, बहुल शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा तथा यथापरिग्रहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रहते हैं। वे इस प्रकार के विहार से विचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करते हैं, पालनकर रोगादि की बाधा के उत्पन्न होने पर या न होने पर अनेक दिनों तक भोजन का प्रत्याख्यान करते हैं,प्रत्याख्यान करके अनेक दिनों तक भोजन का अनशन के द्वारा विच्छेद करते हैं, विच्छेद कर आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधि पूर्वक, कालमास में काल करके किन्हीं देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणाबहूइं वासाइं समणोवासगपरियाग पाउणंति, पाउणित्ता आबाहसि उप्पण्णंसि वा, अणुप्पण्णंसि वा, बहूई भत्ताई पच्चक्खाइंति, पच्चक्खाइत्ता, बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदेत्ता, आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे काल किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहामहिड्ढिएसु महज्जुइएसुजाव महासोक्खेसु। सेसं तहेव जावएस ठाणे आरिए सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे जाव एगंतसम्मे साहू। वे देवलोक महान् ऋद्धि, महान् द्युति यावत् महान् सुख वाले होते हैं। शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् . यह स्थान आर्य यावत् सब दुःखों के क्षय का मार्ग, एकान्त सम्यक् और सुसाधु है। यह तीसरे स्थान मिश्रपक्ष का विकल्प इस प्रकार कहा गया है। तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिए। -सुय. सु. २, अ.२, सु.७१५ ६५. धम्मपक्खीयाणं पुरिसाणं पवित्ति परिणाम य अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइइह-खलु पाईणं वा जाव दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहाअणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू ६५. धर्मपक्षीय पुरुषों की प्रवृत्ति एवं परिणाम अब दूसरे स्थान धर्म का विकल्प इस प्रकार कहा जाता हैपूर्व यावत् दक्षिण दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, यथा अनारंभी, अपरिग्रही, धार्मिक, धर्म का अनुगमन करने वाले, धर्मिष्ठ यावत् धर्म के द्वारा आजीविका करते हुए रहते हैं। वे सुशील, सुव्रत, सुप्रत्यानन्द अर्थात् उपकारी का उपकार मानने वाले सुसाधु हैं। वे यावज्जीवन सर्वप्राणातिपात से विरत यावत् वे यावज्जीवन सब कुट्टन, पीडन, तर्जन, ताडन, वध, बन्ध, परिक्लेश से विरत होते हैं। सव्वाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए जाव सव्वाओ कुट्टण- पिट्टण-तज्जण-ताडण-वहबंधपरिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवाए,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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