SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४४ एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जइ। पंचमे दंड समादाणे दिट्ठीविपरियासियादंडे त्ति आहिए। ६-अहावरे छठे किरियाठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिज्जइ। से जहाणामए केइ पुरिसेआयहेउं वा, नायहेउं वा, अगारहेउं वा, परिवारहेउं वा, सयमेव मुसं वयइ, अण्णेण वि मुसं वयावेइ, मुसंवयंतं पिअण्णं समणुजाणइ। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जइ। छठे किरियाठाणे मोसवत्तिए त्ति आहिए। ७-अहावरे सत्तमे किरियाठाणे अदिण्णादाणवत्तिए ति आहिज्जइ। से जहाणामे केइ पुरिसेआयहेउं वा, नायहेउं वा, अगार हेउं वा, परिवारहेउं वा सयमेव अदिण्णं आदियइ, अण्णेण वि अदिण्णं आदियावेइ अदिण्णं आदियंतं वि अण्णं समणुजाणइ। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जइ। द्रव्यानुयोग-(२) इस प्रकार उस पुरुष को दृष्टि विपर्यास से किये गए दण्ड के कारण सावध कर्म का बन्ध होता है। यह पांचवां दृष्टि विपर्यास दण्ड प्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा गया है। ६-अब छठा मृषाप्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा जाता हैजैसे कोई पुरुषअपने लिए, ज्ञातिवर्ग के लिए, घर के अथवा परिवार के लिए स्वयं असत्य बोलता है, दूसरों से असत्य बुलवाता है, असत्य बोलने वाले का अनुमोदन करता है, इस प्रकार उस पुरुष को असत्य प्रवृत्ति-निमित्त से सावध पापकर्म का बन्ध होता है। यह छठा मृषावाद प्रत्ययिक दण्डसमादान (क्रियास्थान) कहा गया है। ७-अब सातवां अदत्तादान प्रत्ययिक दण्डसमादान (क्रिया स्थान) कहा जाता है। जैसे कोई पुरुषअपने लिए, ज्ञाति के लिए, घर के लिए और परिवार के लिए अदत्त-बिना दी हुई वस्तु को स्वयं ग्रहण करता है, दूसरे से अदत्त ग्रहण करवाता है, अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है, इस प्रकार उस पुरुष को अदत्तादान-सम्बन्धित सावध (पाप) कर्म का बन्ध होता है। यह सातवां अदत्तादान प्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा गया है। ८-अब आठवां दण्ड समादान (क्रिया स्थान) अध्यात्मप्रत्ययिक कहा जाता हैजैसे कोई पुरुषकिसी विसंवाद (तिरस्कार या क्लेश) के बिना स्वयमेव हीन, दीन, दुष्ट, दुर्मनस्क और उदास होकर मन में बुरा संकल्प कर चिन्ता या शोक सागर में डूबकर हथेली पर मुँह रखकर पृथ्वी पर दृष्टि किये हुए आर्तध्यान करता रहता है। निःसन्देह उसके हृदय में ये चार आध्यात्मिक कारण कहे जाते हैं, यथा१. क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ। क्योंकि क्रोध, मान, माया और लोभ आन्तरिक कारण है। इस प्रकार उस पुरुष को अध्यात्म प्रत्ययिक सावधकर्म का बन्ध होता है। यह आठवां अध्यात्मप्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा गया है। ९-अब नौवां मानप्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा जाता हैजैसे कोई पुरुष सत्तमे किरियाठाणे अदिण्णादाणवत्तिए त्ति आहिए। ८-अहावरे अट्ठमे किरियाठाणे अज्झत्थवत्तिए त्ति आहिज्जइ-. से जहाणामए केइ पुरिसेसे णत्थि णं केइ किंचि विसंवादेइ सयमेव हीणे, दीणे, दुठे, दुम्मणे, ओहयमणसंकप्पे, चिंतासोगसागर संपविठे, करयलपल्हत्थमुहे, अटज्झाणोवगए भूमिगयदिट्ठीए झियाइ। तस्स णं अज्झत्थिया असंसइया चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जंति तं जहा१.कोहे,२.माणे,३.माया, ४.लोभे। अज्झत्थमेव कोह-माण-माया-लोहा। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जइ। अट्ठमे किरियाठाणे अज्झथिए त्ति आहिए। ९-अहावरे णवमे किरियाठाणे माणवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy