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________________ क्रिया अध्ययन एवं खलु तस्स तप्यत्तिवं सावज्जं ति आहिज्जइ । तच्चे दंड समादाणे हिंसादंड वत्तिए त्ति आहिए। ४- अहावरे चउथे दंडसमादाणे अकम्हा दंडवतिए ति आहिज्जइ, (१) से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा, मियवित्तिए, मियसंकप्पे, मियपणिहाणे, मियवहाए गंता, एए "मिय त्ति" काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसुं आयामेत्ता णं णिसिरेज्जा, से मियं वहिस्सामि त्ति कट्टु तित्तिरं वा वट्टगं वा थडगं वा, लावगं वा कवोतगं वा कविं वा, कविजलं वा विधित्ता भवइ । इइ खलु से अण्णस्स अट्ठाए अण्ण फुसइ अकम्हादंडे । (२) से जहाणामए केइ पुरिसे सालीणि वा, वीहिणि वा, कोद्दवाणि वा, कंगुणि था, परगाणि वा रालाणि वा णिलिज्जमाणे, अन्नयरस्स तणस्स वहाए सत्थं णिसिरेज्जा, से सामगं, तणगं, कुमुदगं विहिऊसियं कालेसुयं तणं छिंदिस्साामि त्ति कट्टु, सालिं वा, वीहिं वा, कोद्दवं वा, कंगुं वा, परगं वा, रालयं वा छिंदित्ता भवइ । इइ खलु से अन्नस्स अट्ठाए अन्नं फुसइ, अकम्हा दंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जे त्ति आहिज्जइ । चउत्थे दंडसमादाणे अकम्ना दंडवत्तिए लि आहिए। ५- अहावरे पंचमे दंडसमादाणे विविविपरियासियादंडे ति आहिज्जइ, (१) से जहाणामए केइ पुरिसे " माईहिं वा, पिईहिं वा, भाईहिं वा, भगिणीहिं वा, भज्जाहिं वा, पुतेहिं वा धूवाहिं या सुहाहिं वा सद्धिं संवसमाणे मित्तं अमित्तमिति मन्नमाणे मित्ते हयपुब्वे भवइ दिट्ठी विप्परियासियादंडे । (२) से जहाणामए केइ पुरिसे गामघायंसि वा, नगरघायंसि वा, खेडघायंसि वा, " " कब्बडघायंसि वा, मडंबघायंसि वा, दोणमुहघायंसि वा, पट्टणघासि वा आसमघायंसि वा सन्निवेसघासि वा निगमघायसि था, रायहाणिघायसि वा अतेण तेणमिति मन्नमाणे अतेणे हयपुव्वे भव दिट्ठीविपरियासियादंडे । " ९४३ इस प्रकार प्राणियों की घात के कारण उस पुरुष को सावधकर्म का बन्ध होता है। यह तीसरा हिंसा दण्ड प्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा गया है। ४- अब चौथा अकस्मात् दण्ड प्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान) कहा जाता है (१) जैसे कोई पुरुष - कच्छ में यावत् किसी घोर वन में जाकर मृग को मारने की प्रवृत्ति करता है, मृग को मारने का संकल्प करता है, मृग का ही ध्यान रखता है और मृग का वध करने के लिए जाता है, "यह मृग है" यों जान कर किसी एक मृग को मारने के लिए वह अपने धनुष पर बाण को खींच कर चलाता है और "उस मृग को मारूंगा" ऐसा सोचकर बाण फेंकता है किन्तु उससे तीतर, बतक, चिड़िया, लावक, कबूतर, बन्दर या कपिंजल पक्षी को बींध डालता है, इस प्रकार वह दूसरे को मारने के लिए बाण फैंकता है किन्तु अन्य का घात हो जाता है, यह अकस्मात् दण्ड है। (२) जैसे कोई पुरुष शालि (चावल) व्रीहि (गेहूँ) कोद्रव, कंगू, परक और राल नामक धान्यों के पौधों को साफ करता हुआ किसी तृण (घास) को काटने के लिए शस्त्र निकाले और यह सोचे कि "मैं श्यामक तृण कुमुद और व्रीही पर छाये हुए कलेसुक (समरूप) तृण को काटूंगा" किन्तु शाली, प्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल के पौधों का छेदन कर देता है। इस प्रकार वह जिसको लक्ष्य रखकर शस्त्र प्रयोग करता है किन्तु अन्य को काट डालता है वह अकस्मात् दण्ड है। इस प्रकार उस पुरुष को सहसा ही उन प्राणियों के घात के कारण सावद्यकर्म का बन्ध होता है। यह चतुर्थ अकस्मात् दण्ड प्रत्ययिक दण्ड समादान (क्रिया स्थान ) कहा गया है। ५- अब पांचवां दृष्टि विपर्यास दण्ड प्रत्ययिक दण्डसमादान (क्रिया स्थान) कहा जाता है (१) जैसे कोई पुरुष - अपने माता, पिता, भाई, बहन, स्त्री, पुत्र, पुत्री या पुत्रवधु के साथ मित्र को शत्रु समझ कर मार देता है तो दृष्टि विपर्यास दण्ड (दृष्टि भ्रम वश) कहलाता है। (२) जैसे कोई पुरुष - ग्राम, नगर, खेड, कब्बड, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, सन्निवेश, निगम या राजधानी पर घात के समय किसी चोर से भिन्न अचोर को चोर समझ कर मार डाले तो वह दृष्टि विपर्यास दण्ड कहलाता है। 2.
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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