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________________ ९०६ उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। एवं पाणाइवायविरयस्स मणूसस्स वि। द्रव्यानुयोग-(२) उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! प्राणातिपात से विरत जीव मिथ्यादर्शन-प्रत्यया क्रिया करता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार प्राणातिपात से विरत मनुष्य का भी आलापक कहना चाहिए। इसी प्रकार मायामृषाविरत पर्यन्त जीव और मनुष्य के संबंध में भी कहना चाहिए। प्र. भंते ! मिथ्यादर्शन-शल्य से विरत जीव क्या आरम्भिकी क्रिया करता है यावत् मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया करता है? एवं जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणूसस्स य। प. मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! जीवस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ? उ. गोयमा ! मिच्छादसणसल्लविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जइ, सिय णो कज्जइ। एवं जाव अप्पच्चक्खाणकिरिया। उ. गौतम ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव आरम्भिकी क्रिया कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता है। इसी प्रकार यावत् अप्रत्याख्यानक्रिया कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता है। किन्तु मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं करता है। प्र. भंते ! मिथ्यादर्शनशल्यविरत नैरयिक क्या आरम्भिकी क्रिया करता है यावत् मिथ्यादर्शन-प्रत्यया क्रिया करता है ? मिच्छादसणवत्तिया किरिया णो कज्जइ। प. मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! णेरइयस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ? उ. गोयमा ! आरंभिया वि किरिया कज्जइ जाव अपच्चक्खाणविकिरिया कज्जइ, मिच्छादसणवत्तिया किरिया णो कज्जइ। एवं जाव थणियकुमारस्स। प. मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! पंचेन्दिय तिरिक्खजोणियस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ? उ. गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मायावत्तिया किरिया कज्जइ, अपच्चक्खाणकिरिया सिय कज्जइ, सियणो कज्जइ, मिच्छादसणवत्तिया किरिया णो कज्जइ। उ. गौतम ! वह आरम्भिकी क्रिया भी करता है यावत अप्रत्याख्यान क्रिया भी करता है किन्तु मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं करता है। इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त क्रिया संबंधी आलापक कहना चाहिए। प्र. भंते ! मिथ्यादर्शन शल्य विरत पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक क्या आरम्भिकी क्रिया करता है यावत मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया करता है? उ. गौतम ! वह आरम्भिकी क्रिया करता है यावत् मायाप्रत्यया क्रिया करता है, अप्रत्याख्यान क्रिया कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं भी करता है किन्तु मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं करता है। (मिथ्यादर्शनशल्य विरत) मनुष्य के क्रिया संबंधी आलापक सामान्य जीव के समान कहने चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के क्रिया संबंधी आलापक नैरयिकों के समान कहना चाहिए। १५. चौबीस दंडकों में सम्यग्दृष्टियों के आरम्भिकी आदि क्रियाओं का प्ररूपणसम्यग्दृष्टि नैरयिकों में चार क्रियाएं कही गई हैं, यथा मणूसस्स जहा जीवस्स। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहाणेरइयस्स। -पण्ण.प.२२,सु.१६५०-१६६२ १५. चउवीसदंडएसु सम्मद्दिट्ठियाणं आरंभियाइ किरिया परूवणंसम्मद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. आरंभिया, २. पारिग्गहिया, ३. मायावत्तिया; ४. अपच्चक्खाणकिरिया। सम्मद्दिट्ठियाणं असुरकुमाराणं चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. आरंभिया,. २. पारिग्गहिया, ३. मायावत्तिया, ४. अपच्चक्खाणकिरिया। १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्ययिकी, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया। सम्यग्दृष्टि असुरकुमारों में चार क्रियाएं कही गई हैं, यथा १. आरम्भिकी, ३. मायाप्रत्ययिकी, २. पारिग्रहिकी, ४. अप्रत्याख्यान क्रिया।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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