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लेश्या अध्ययन प. से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ
“णीललेस्से णं णेरइए कण्हलेस्सं णेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ?" उ. गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जाओ
भूमिभागाओ पव्वयं दुरूहइ, दुरूहित्ता सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितल-गयं पुरिसं पणिहाय सव्वओ समंता समभिलोएमाणे-समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जाणइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ“णीललेस्से णेरइए कण्हलेस्सं णेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ।" प. काउलेसे णं भंते ! णेरइए णीललेस्सं णेरइयं ओहिणा
सव्वओ समंता समभिलोएमाणे-समभिलोएमाणे केवइयं
खेत्तं जाणइ, केवइयं खेत्तं पासइ? उ. गोयमा ! बहुतरागं खेत्तं जाणइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं
पासइ। प. सेकेणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"काउलेस्से णं णेरइए णीललेस्सं णेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ? उ. गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जाओ
भूमिभागाओ पव्वयं दुरूहइ, दुरूहित्ता रुक्खं दुरूहइ दुरूहित्ता दोण्णि पादे उच्चावियं सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसो पव्वयगयं धरणितलगयं च पुरिसं पणिहाय सव्वओ समंता समभिलोएमाणे-समभिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जाणइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"काउलेस्से णं णेरइए णीललेस्सं णेरइयं पणिहाय जाव
विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ।" -पण्ण. प. १७, उ.३, सु. १२१५ ३८. अविसुद्ध-विसुद्धलेस्से अणगारस्स जाणण-पासणंप. (१) अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं
अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ
पासइ? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प. (२) अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं
अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?
८७७ ] प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"नीललेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा
यावत् विशुद्ध रूप से क्षेत्र को देखता है?" उ. गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम, रमणीय भूमिभाग से
पर्वत पर चढ़ता है और पर्वत पर चढ़ कर चारों ओर देखे तो वह पुरुष भूतल पर स्थित पुरुष की अपेक्षा चारों ओर अवलोकन करता हुआ अत्यधिक क्षेत्र को जानता है यावत् विशुद्ध रूप से क्षेत्र को देखता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"नीललेश्या वाला नारक, कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा
यावत् विशुद्धरूप से क्षेत्र को देखता है।" प्र. भंते ! कापोतलेश्या वाला नारक नीललेश्या वाले नारक की
अपेक्षा चारों ओर से अवलोकन करता हुआ अवधिज्ञान द्वारा कितने क्षेत्र को जानता है और कितने क्षेत्र को देखता है ? उ. गौतम ! अत्यधिक क्षेत्र को जानता है यावत् विशुद्ध रूप से
क्षेत्र को देखता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"कापोतलेश्या वाला नारक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा
यावत् विशुद्ध रूप से क्षेत्र को जानता देखता है?" उ. गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम रमणीय भू भाग से पर्वत
पर चढ़ता है और पर्वत पर चढ़कर वृक्ष पर चढ़ता है, तदनन्तर वृक्ष पर दोनों पैरों को ऊंचा करके चारों ओर देखे तो वह पुरुष पर्वत पर और भूतल पर स्थित पुरुष की अपेक्षा चारों ओर अवलोकन करता हुआ अत्यधिक क्षेत्र को जानता है यावत् विशुद्ध रूप से क्षेत्र को देखता है।
इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कापोतलेश्या वाला नारक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा
यावत् विशुद्ध रूप से क्षेत्र को देखता है।" ३८. अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का जानना देखनाप्र. १. भंते ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार उपयोग रहित आत्मा
से अविशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी और अनगार को जानता
देखता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. २. भंते ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार उपयोग रहित आत्मा
से विशुद्धलेश्या वाले देव और देवी अनगार को जानता
देखता है? उ. गौतम ! यह अर्थ शक्य नहीं है। प्र. ३. भंते ! अविशुद्ध लेश्या वाला अनगार उपयोग सहित
आत्मा से अविशुद्ध लेश्या वाले देव-देवी और अनगार को
जानता देखता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. ४. भंते ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार उपयोग सहित आत्मा
से विशुद्ध लेश्या वाले देव-देवी और अनगार को जानता देखता है?
उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प. ३.अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं
अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?
उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प. ४.अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं
विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?