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________________ ८७० २९. सलेस्सेसु देवेसु उववज्जणंप. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्सेसु भवित्ता कण्हलेस्से देवेसु उववज्जति? उ. गोयमा ! एवं जहेव णेरइएसु पढमे उद्देसए तहेव भाणियव्यं। नीललेस्साए विजहेव नेरइयाणं जहा नीललेस्साए। एवं जाव पम्हलेस्सेसु। सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, णवर-लेस्सट्ठाणेसु विसुज्झमाणेसु-विसुज्झमाणेसु सुक्कलेस्सं परिणमइ सुक्कलेस्सं परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववज्जति। से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववज्जति।' -विया. स. १३, उ. २, सु. २८-३१ ३०. भावियप्पणो अणगारस्स लेस्साणुसारेणं उववाय परूवणं- प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं देवावासं वीइक्कते, परमं देवावासं असंपत्ते, एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते ! कहिं गई, कहिं उववाए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! जे से तत्थ परिणस्सओ तल्लेसा देवावासा तहिं तस्स गई, तहिं तस्स उववाए पण्णत्ते। द्रव्यानुयोग-(२) २९. सलेश्य की देवों में उत्पत्तिप्र. भंते ! वास्तव में क्या कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होने पर भी जीव कृष्णलेश्या वाले देवों में उत्पन्न हो जाते हैं ? उ. हा गौतम ! जिस प्रकार (प्रथम उद्देशक में) पूर्वोक्त नैरयिकों के विषय में कहा उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिए। नीललेश्या वाले देवों के विषय में नीललेश्या वाले नैरयिकों के समान कहना चाहिए। इसी प्रकार पद्मलेश्या वाले देवों पर्यन्त कहना चाहिए। शुक्ललेश्या वाले देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष-लेश्या स्थान विशुद्ध होते-होते शुक्ललेश्या में परिणत हो जाते हैं और शुक्ललेश्या में परिणत होने के पश्चात् ही शुक्ललेश्यी देवों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होने पर भी जीव शुक्ललेश्या वाले देव रूप में उत्पन्न हो जाते हैं। ३०. भावितात्मा अणगार का लेश्यानुसार उपपात का प्ररूपणप्र. भंते ! किसी भावितात्मा अनगार ने चरम (पूर्ववर्ती) देवावास (देवलोक) का उल्लंघन कर लिया किन्तु उत्तरवर्ती देवावास को प्राप्त न हुआ हो इसी बीच में काल कर जाए तो भंते ! उसकी कौन-सी गति होती है, कहां उत्पन्न होता है ? - उ. गौतम ! (भावितात्मा अणगार) उसके आसपास में जो लेश्या वाले देवावास क्षेत्र हैं वहीं उसकी गति होती है और वहीं उसकी उत्पत्ति होती है। वह अनगार यदि वहां जाकर अपनी पूर्वलेश्या को विराधित करता है, तो कर्मलेश्या से गिरता है और यदि वहां जाकर उस लेश्या को विराधित नहीं करता है तो वह उसी लेश्या में विचरता है। प्र. भंते ! किसी भावितात्मा अनगार ने चरम असुरकुमारावास का उल्लंघन कर लिया और परम असुरकुमारावास को प्राप्त नहीं हुआ इसी बीच में वह काल कर जाए तो उसकी कौन-सी गति होती है, कहां उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी प्रकार स्तनितकुमारावास पर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार ज्योतिष्कावास और वैमानिकावासों के लिए भी कहना चाहिए। ३१. लेश्यायुक्त चौबीसदण्डकों में जीवों का सामान्यतः उत्पाद उर्वतन. प्र. दं. १. भंते ! वास्तव में क्या कृष्णलेश्यी नारक कृष्णलेश्यी नारकों में ही उत्पन्न होता है? क्या कृष्णलेश्यी होकर ही उद्वर्तन करता है? जिस लेश्या में उत्पन्न होता है क्या उसी लेश्या में उद्वर्तन करता है? उ. हां, गौतम ! कृष्णलेश्यी नारक कृष्णलेश्यी नारकों में उत्पन्न होता है, कृष्णलेश्या में उद्वर्तन करता है (मरता है) से ये तस्थगए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडइ, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा। तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरम असुरकुमारावासं वीइक्कते, परमं असुरकुमारावासं असंपत्ते एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते ! कहिं उववाए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! एवं चेव। एवं जाव थणियकुमारावास, एवं जोइसियावासं वेमाणियावासं जाव विहरइ। -विया. स.१४, उ.१, सु. ३-५ ३१. सलेस्सेसु चउवीसदंडएसु ओहेणं उववाय-उव्वट्टाणाओ प. दं. १. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से णेरइए कण्हलेस्सेसु णेरइएसु उववज्जइ? कण्हलेस्से उव्वट्टइ? जल्लेस्से उववज्जइ तल्लेसे उव्वट्टइ? उ. हंता, गोयमा ! कण्हलेस्से णेरइए कण्हलेस्सेसु णेरइएसु उववज्जइ, कण्हलेस्से उव्वट्टइ,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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