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________________ अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्त्व पर विचार-जैनागमों में मोक्षावस्था का चित्रण निषेधात्मक रूप से भी हुआ है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग सूत्र में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है। मोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमंडल संस्थान वाला है, न वह तीक्ष्ण है, वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण वाला भी नहीं है। वह सुगंध और दुर्गंध वाला भी नहीं है। कटु, खट्टा, मीठा एवं अम्ल रस वाला भी नहीं है। उसमें गुरु, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रुक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गुणों का भी अभाव है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुसंक है। इस प्रकार मुक्तामा में रस, रूप, वर्ण, गंध और स्पर्श भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में मोक्ष दशा का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं-"मोक्ष दशा में सुख है, न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है, न वहाँ इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न निद्रा है, न वहाँ चिंता है, न आर्त और न रौद्र विचार ही है। वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल (प्रशस्त) विचारों का भी अभाव है।"२ मोक्षावस्था तो सर्व-संकल्पों का अभाव है। वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है, वह पक्षातिक्रान्त है। इस प्रकार मुक्ताबस्था का निषेधात्मक विवेचन उसको अनिर्वचनीय बतलाने के लिये ही है। मोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप-मोक्ष का निषेधात्मक निर्वचन अनिवार्य रूप से हमें उसकी अनिर्वचनीयता की ओर ही ले जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हुए जैन दार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है। __ आचारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि समस्त स्वर वहाँ से लौट आते हैं अर्थात् ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का वह विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है, अरूपी सत्तावान् है। वह अ-पद कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। उसके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह अरूप, अरस, अवर्ण और अस्पर्श है क्योंकि वह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है। ___ वस्तुतः मोक्ष ही ऐसा तत्त्व है, जो सभी दर्शनों, धर्मों और साधना विधियों का चरम लक्ष्य है, प्राप्तव्य है। वह आत्मपूर्णता है-उसका केवल अनुभव किया जा सकता है। उसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। यह शाब्दिक विवरण उसका सकत तो कर सकता है-किन्तु उसे अनुभूत नहीं करा सकता है। उसकी अनुभूति तो साधना के माध्यम से ही सम्भव है। आशा है प्रबुद्ध साधक उसकी स्वानुभूति कर अनन्त और असीम आनन्द को प्राप्त करेंगे। इस प्रकार द्रव्यानुयोग की इस भूमिका में हमने मुख्य रूप से पंचास्तिकायों, षद्रव्यों और नवतत्त्वों की अपनी दृष्टि से ऐतिहासिक और आगमिक परिप्रेक्ष्य में चर्चा की है। यह अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उपाध्यायप्रवर मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. सा. 'कमल' ने अपने सम्पूर्ण जीवन को अनुयोगों के इस वर्गीकरण के महान कार्य में समर्पित कर दिया है। वे अपने जीवन के लगभग आठ दशक पूर्ण कर चुके हैं। उसमें लगभग पिछले पचास वर्षों में इसी कार्य में जुटे रहे हैं। उन्होंने यह श्रम करके अर्ध-मागधी आगमों के विषयों के अध्ययन के लिए शोधार्थियों और विद्वानों का जो उपकार किया है उसे कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा। उपाध्यायश्री ने द्रव्यानुयोग के इस संकलन में द्रव्य विवेचन, पर्याय विवेचन तथा जीवाजीव विवेचन के साथ-साथ जीव का आहार, भवसिद्धिक, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर, पर्याप्त आदि अपेक्षाओं से भी विस्तृत विचार करते हुए तत्सम्बन्धी सभी आगमिक स्थलों को उपशीर्षकों के अन्तर्गत रखकर प्रस्तुत किया है। इस विषयानुक्रम से किये गये आगमिक स्थलों के प्रस्तुतीकरण का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि एक विषय से सम्बन्धित सभी आगमिक सन्दर्भ एक साथ प्राप्त हो जाते हैं। उनके द्वारा किये गये इस श्रम-साध्य कार्य से अनेकानेक लोगों को श्रम से मुक्ति मिली है। हम उनका आभार किन शब्दों में प्रकट करें, उनके सार्थक श्रम को शब्द की सीमा में बाँध पाना सम्भव नहीं है। चरणानुयोग की भूमिका की तरह इस भूमिका के लिये भी मैंने उन्हें और पाठकों को पर्याप्त प्रतीक्षा करवायी, इस हेतु हृदय से क्षमा प्रार्थी हूँ। पौष कृष्णा १० पार्श्व जयंती सम्वत् २०५१ -प्रो. डॉ. सागरमल जैन निदेशक, पार्श्वनाथ शोधपीठ वाराणसी-५ १. से न दीहे, न हस्से, न बट्टे, न तंसे, न चउरसे, न परिमंडले, न किण्हे, न २. वि दुक्ख णवि सुखं णवि पीडा व णवि विज्जदे बाहा। नीले, न लोहिए, न हालिहे, न सुकिले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, णवि मरणं णवि जणणं, तत्थेव य होई णिव्याण ॥ न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, न कक्खड़े, न मउए, न गुरुए, न ___णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विलियो ण णिद्दाय। लहुए, न सीए, न उण्हे, न निद्धे, न लुक्खे, न काऊ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, ण य तिण्हा णेव छुहा तत्येव हवदि णिव्वाणं॥ -नियमसार, १७८-१७९ '' ३. सब्बेसरा नियटॅति तक्का जत्थ न विज्जइ, गई तत्थ न, गहिया ओए न पुरिसे, न अन्नहा-से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे। अप्पइट्ठाणस्स खेयन्त्रे-उवमा न विज्जए-अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि। . -आचारांग सूत्र, १/५/६ -आचारांग सूत्र, १/५/६/१७१ (७२)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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