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________________ यवदान्त को स्वीकार्य कुन्दकुन्द (१) पूर्ण वा अविचल, अ बंधन भी नहीं रहते और यही बंधन का अभाव ही मुक्ति है। वस्तुतः मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है। बंधन आत्मा की विरूपावस्था है और मुक्ति आत्मा की स्वरूपावस्था है। अनात्मा में ममत्व, आसक्ति रूप आत्माभिमान का दूर हो जाना यही मोक्ष है। और यही आत्मा की शुद्धावस्था है। बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्याय दृष्टि का विषय है। आत्मा की विरूप पर्याय बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है। पर पदार्थ, पुद्गल, परमाणु या जड़ कर्म-वर्गणाओं के निमित्त आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिनके कारण पर में आत्म-भाव (मेरापन) उत्पन्न होता है, यही विरूप पर्याय है, परपरिणति है, स्व की पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है। बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म-द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएँ मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण मुकुट और स्वर्ण कुंडल स्वर्ण की ही दो अवस्थाएँ हैं। लेकिन यदि मात्र, विशुद्ध तत्त्व दृष्टि या निश्चय नय से विचार किया जाय तो बंधन और मुक्ति दोनों की व्याख्या संभव नहीं है क्योंकि आत्म-तत्त्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणत नहीं होता। विशुद्ध तत्त्व दृष्टि से तो आत्मा नित्यमुक्त है। लेकिन जब तत्त्व की पर्यायों के संबंध में विचार प्रारम्भ किया जाता है तो बंधन और मुक्ति की संभावनाएँ स्पष्ट हो जाती हैं, क्योंकि बन्धन और मुक्ति पर्याय अवस्था में ही संभव होती हैं। मोक्ष को तत्त्व माना गया है, लेकिन वस्तुतः मोक्ष बंधन के अभाव का ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्त्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया है-(१) भावात्मक दृष्टिकोण, (२) अभावात्मक दृष्टिकोण, (३) अनिर्वचनीय दृष्टिकोण। मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार-जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे निर्बाध अवस्था कहा है। मोक्ष में समस्त बाधाओं के अभाव के कारण आत्मा के निजगुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं। मोक्ष, बाधक तत्त्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता का प्रकटन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्टययुक्त, अक्षय, अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य, अविचल, अनालम्ब कहा है। आचार्य उसी ग्रंथ में आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते हैं६ (१) पूर्ण ज्ञान, (२) पूर्ण दर्शन, (३) पूर्ण सौख्य, (४) पूर्ण वीर्य, (५) अमूर्तत्व, (६) अस्तित्व और (७) सप्रदेशता। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष दशा के जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है, वे सभी भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं हैं। वेदान्त को स्वीकार नहीं हैं, सांख्य सौख्य एवं वीर्य को और न्याय वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं। बौद्ध शून्यवाद अस्तित्व का भी विनाश कर देता है और चार्वाक् दर्शन मोक्ष की धारणा को भी समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्ष को अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के निराकरण के लिये ही मोक्ष की इस भावात्मक अवस्था का चित्रण किया गया है। भावात्मक दृष्टि से जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्टय की उपस्थिति पर बल देती है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में अनन्त चतुष्टय कहा जाता है। बीजरूप में यह अनन्त चतुष्टय सभी जीवात्माओं में उपस्थित है, मोक्ष दशा में इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से ये गुण पूर्ण रूप में प्रकट हो जाते हैं। ये प्रत्येक आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो जाते हैं। अनन्त चतुष्टय में अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य आते हैं। लेकिन अष्टकर्मों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के आठ गुणों की मान्यता भी जैन विचारणा में प्रचलित है-(१) ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है। (२) दर्शनावरण कर्म के नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से संपन्न होता है। (३) वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से विशुद्ध अनश्वर आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है। (४) मोहकर्म के नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि (क्षायिक सम्यक्त्व) से युक्त होता है। मोहकर्म के दर्शनमोह और चारित्रमोह ऐसे दो भाग किए जाते हैं। दर्शनमोह के प्रहाण से यथार्थ और चारित्रमोह के क्षय से यथार्थ चारित्र (क्षायिक चारित्र) का प्रकटन होता है। लेकिन मोक्ष दशा में क्रियारूप चारित्र नहीं होता मात्र दृष्टि रूप चारित्र ही होता है। अतः उसे क्षायिक सम्यक्त्व के अंतर्गत ही माना जा सकता है। वैसे आठ कर्मों की ३१ प्रकृतियों के प्रहाण के आधार से सिद्धों के ३१ गुण माने गये हैं, उसमें यथाख्यात चारित्र को स्वतंत्र गुण माना गया है। (५) आयु कर्म के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है वह अजर-अमर होता है। (६) नाम-कर्म का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा अशरीरी एवं अमूर्त होता है अतः वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता है। (७) गोत्र-कर्म के नष्ट हो जाने से अगुरुलघुत्व से युक्त हो जाता है। अर्थात् सभी सिद्ध समान होते हैं, उनमें छोटा-बड़ा या ऊँच-नीच का भाव नहीं होता। (८) अन्तराय कर्म का प्रहाण हो जाने से बाधारहित होता है अर्थात् अनन्त शक्ति संपन्न होता है। अनन्त शक्ति का यह विचार मूलतः निषेधात्मक ही है। यह मात्र बाधाओं का अभाव है। लेकिन इस प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार से मुक्तात्मा के आठ गुणों की व्याख्या की मात्र एक व्यावहारिक संकल्पना ही है। उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वचन नहीं है यह व्यावहारिक दृष्टि से उसे समझने का प्रयास मात्र है। इसका व्यावहारिक मूल्य है, वस्तुतः तो वह अनिर्वचनीय है आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धात्मा के स्वरूप के संबंध में जो एकान्तिक मान्यताएँ हैं, उनके निषेध के लिये हैं। मुक्तात्मा में केवलज्ञान और केवलदर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्माओं को जड़ मानने वाली वैभाषिक, बौद्धों और न्याय-वैशेषिक की धारणा का प्रतिषेध किया गया है। मुक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभाव रूप में मानने वाली जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष दशा का समग्र भावात्मक चित्रण निषेधात्मक मूल्य ही रखता है। यह विधान भी निषेध के लिये है। १. बन्ध वियोगो मोक्षः -अभिधान राजेन्द्र, खंड ६, पृष्ठ ४३१ ६. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलविरिय। २. मुक्खो जीवस्स सुद्ध रूपस्स -वही, खंड ६, पृष्ठ ४३१ केवलदिवि अमुत्तं अत्थितं सप्पदेसत्तं ॥ -नियमसार, १८१ ३. तुलना कीजिये-(अ) आत्म-मीमांसा (दलसुखभाई), पृष्ठ ६६-६७ ७. कुछ विद्वानों ने अगुरुलघुत्व का अर्थ न हल्का न भारी किया है। (ब) ममेति वध्यते जन्तुर्ममनेति प्रमुच्यते -गरुड़ पुराण ८. प्रवचनसारोद्धार द्वार २७६,गाथा १५९३-१५९४ ४. अव्वाबाहं अवत्थाणं-व्यावाधावर्जितभवस्थानम्-अवस्थितिः जीवस्यासी मोक्ष । माक्ष ९. सदसित संखो मक्कडि बुद्धो णेया इयो य विसेसी। इति। -अभिधान राजेन्द्र, खंड ६, पृष्ठ ४३१ ईसर मंडलि दंसण विइसणटुं कयं एवं। -गोम्मटसार, नेमीचन्द्र ५. नियमसार, १७६-१७७ (७१)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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