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________________ ७१८ एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए समोहणित्ता, वाणारसीए नगरीए रूवाई जाणामि पासामि, से से दंसणे अविवच्चासे भवइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"तहाभावं जाणइ पासइ, णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ।" बीओ विआलावगो एवं चेव, णवरं-वाणारसीए नगरीए समोहणावेयव्यो, रायगिहे नगरे रूवाइं जाणइ पासइ। द्रव्यानुयोग-(१) "वाराणसी नगरी में रहा हुआ मैं राजगृहनगर की विकुर्वणा करके वाराणसी के रूपों को जानता-देखता हूँ। इस प्रकार उसका दर्शन अविपरीत होता है। इस कारण से गौतम! ऐसा कहा जाता है कि"वह यथाभाव से जानता-देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता है।" दूसरा आलापक भी इसी तरह कहना चाहिए। विशेष-विकुर्वणा वाराणसी नगरी की समझनी चाहिए और राजगृह नगर में रहकर रूपों को जानता-देखता है ऐसा समझना चाहिए। प्र. भन्ते ! अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि से राजगृहनगर और वाराणसी नगरी के बीच में एक बड़े जनपद-वर्ग की विकुर्वणा करके उस राजगृह नगर और वाराणसी के बीच में एक बड़े जनपद-वर्ग को जानता-देखता है? प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अमायी सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए रायगिहं नगरं वाणारसिं च नगरिं अंतरा य एगं महं जणवयवग्गं समोहए समोहणित्ता, रायगिहं नगरं वाणारसिं च नगरिं तं च अंतरा एगं महं जणवयवग्गं जाणइ पासइ? उ. हंता, गोयमा !जाणइ पासइ। प. से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ? उ. गोयमा ! तहाभावं जाणइ पासइ, णो अण्णहाभाव जाणइ पासइ। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ "तहाभावं जाणइ पासइ, णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ?" उ. गोयमा !तस्स णं एवं भवइ "णो खलु एस रायगिहे नगरे, णो खलु एस वाणारसी नगरी,णो खलु एस अंतरा एगे जणवयवग्गे, उ. हाँ, गौतम, वह जानता-देखता है। प्र. भन्ते ! क्या वह उस जनपद-वर्ग को यथाभाव से जानता और देखता है, या अन्यथाभाव से जानता-देखता है ? उ. गौतम ! वह उस जनपद वर्ग को यथाभाव से जानता और देखता है किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "यथाभाव से जानता-देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता है ?" उ. गौतम ! उस अनगार के मन में ऐसा विचार होता है कि "न तो यह राजगृह नगर है और न यह वाराणसी नगरी है, तथा न ही इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपद वर्ग है, एस खलु ममं वीरियलद्धी, वेउव्वियलद्धी, ओहिणाणलद्धी इड्ढी जुई जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए" से से दंसणे अविवच्चासे भवइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"तहाभावं जाणइ पासइ, णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ।" -विया. स. ३, उ.६, सु. ६-१० १२३. भावियप्पअणगारेहिं वेउव्विय समुग्याएणं समोहयस्स देवाण जाणणं-पासणंप. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देवं वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहए जाणरूवेणंजायमाणं जाणइ पासइ? किन्तु यह मेरी वीर्यलब्धि है, वैक्रियलब्धि है और अवधिज्ञानलब्धि है, तथा यह मेरे द्वारा उपलब्ध, प्राप्त एवं अभिसमन्वागत ऋद्धि, धुति, यश, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम है।" उसका वह दर्शन अविपरीत होता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि - "वह अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार यथाभाव से जानता देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता- देखता है।" १२३. भावितात्मा अणगार द्वारा वैक्रिय समुद्घात से समवहत देवादि का जानना-देखनाप. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए और यान रूप से जाते हुए देव को जानता-देखता है? उ. गौतम ! कोई देव को तो देखता है किन्तु यान को नहीं देखता है, कोई यान को देखता है, किन्तु देव को नहीं देखता है, उ. गोयमा ! अत्थेगइए देवं पासइ, णो जाणं पासइ, अत्थेगइए जाणं पासइ, नो देवं पासइ,
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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