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________________ ज्ञान अध्ययन प. अणगारे णं भंते ! भावियथा मायी मिच्छद्दिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए विभंगणाणलद्धीए वाणारसिं नगरिं रायगिहं च नगरं अंतरा य एगं महं जणवयवग्गं समोहए समोहणित्ता वाणारसि नगरिं रायगिहं च नगरं तं च अंतरा एवं महं जणवयवरगं जाणइ पासइ ? उ. हंता, गोयमा ! जाणइ, पासइ । प से भंते । किं तहाभावं जाणइ पासह, अण्णहाभाव ! जाणइ पासइ ? उ. गोयमा ! णो तहाभावं जाणइ पासइ अण्णहाभाव जाणइ पासइ । प से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ " णो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ ?" उ. गोयमा ! तस्स खलु एवं भवइ “एस खलु वाणारसी नगरी, एस खलु रायगिहे नगरे, एस खलु अंतरा एगे महं जणवयवग्गे, णो खलु एस महं वीरियलद्धी बैउब्वियाली विभंगनाणलद्धी इड्ढी जुई जसे दले वीरिए पुरिसारपरमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए", से से दंसणे वियच्चासे भयड से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पासड।" " णो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ - विया. स. ३, उ. ६, सु. १-५ १२२. भाविययणो सम्मदिसि Sणगारस्स जाणणं पासणंप. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अमायी सम्मद्दिट्ठी वीरियलद्धीए वेउब्वियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए रायगिहे नगरे समोहए समोहण्णित्ता वाणारसीए नगरीए रुवाई जान पासइ ? उ. हंता, गोयमा ! जाणइ पासइ । प से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? उ. गोयमा । तहाभाव जाणड पासड णो अण्णाहाभाव ! जाणइ पासइ । प से केणद्वेण भंते! एवं बुच्चइ "तहाभावं जाणइ पासइ, णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ ?" उ. गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ ७१७ प्र. भन्ते मायी मिध्यादृष्टि भावितात्मा अनगार अपनी वीर्यलब्धि से वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी और राजगृह नगर के बीच में एक बड़े जनपद वर्ग की विकुर्वणा करके वाराणसी नगरी और राजगृह नगर के बीच में उस बड़े जनपद-वर्ग को जानता और देखता है? उ. हाँ, गौतम ! वह जानता और देखता है। प्र. भन्ते ! क्या वह उस जनपद-वर्ग को यथाभाव से जानता- देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानतादेखता है ? उ. गौतम ! वह उस जनपद-वर्ग को यथाभाव से नहीं जानता देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से जानता- देखता है। प्र. भन्ते ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि "वह यथाभाव से नहीं जानता देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से जानता देखता है?" उ. गौतम ! उस अनगार के मन में ऐसा विचार होता है कि'वह वाराणसी नगरी है, यह राजगृह नगर है। तथा इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपद-वर्ग है। परन्तु वह मेरी वीर्यलब्धि, वैकिलब्धि या विभंगज्ञानलब्धि नहीं है और न ही मेरे द्वारा उपलब्ध प्राप्त और अभिसमन्यागत यह ऋद्धि, बुति, यश, बल और पुरुषाकार पराक्रम है।" + , इस प्रकार उक्त अनगार का दर्शन विपरीत होता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि "वह यथाभाव से नहीं जानता-देखता, किन्तु अन्यथाभाव से जानता देखता है"। १२२. भावितात्मा सम्यग् दृष्टि अनगार का जानना - देखना प्र. भन्ते ! वाराणसी नगरी में रहा हुआ अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि से राजगृह नगर की विकुर्वणा करके रूपों को जानता देखता है? उ. हाँ, गौतम ! वह जानता देखता है। प्र. भन्ते ! वह उन रूपों को यथाभाव से जानता-देखता है या अन्यथाभाव से जानता-देखता है ? उ. गौतम ! यह उन रूपों को यथाभाव से जानता देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता देखता है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि " वह यथाभाव से उन रूपों को जानता देखता है, अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता है ? उ. गौतम ! उस अनगार के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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