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________________ ज्ञान अध्ययन - ६७५ ) ४.हीयमाणए, ५. पडिवाई, ६.अपडिवाई, ७. अवट्ठिए, ८.अणवट्ठिए? उ. गोयमा! आणुगामिए, णो अणाणुगामिए, नो वड्ढमाणए नो हीयमाणए, नो पडिवाई, अपडिवाई, अवट्ठिए, नो अणवट्ठिए। दं.२-११. एवं जाव थणियकुमाराणं। प. दं.२०. पंचेंदिय-तिरिक्खजोणियाणं भंते! ओही किं आणुगामिए जाव अणवट्ठिए? उ. गोयमा! आणुगामिए विजाव अणवट्ठिए वि। दं.२१.एवं मणूसाण वि। ४. हीयमान है, ५.प्रतिपाती है,६. अप्रतिपाती है, ७. अवस्थित है, या ८.अनवस्थित है? उ. गौतम! वह आनुगामिक है, किन्तु अनानुगामिक, वर्द्धमान, हीयमान, प्रतिपाती और अनवस्थित नहीं है, अप्रतिपाती और अवस्थित है। दं.२-११. इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त के अवधिज्ञान के लिए जानना चाहिए। प्र. दं. २०. भन्ते! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों का अवधिज्ञान आनुगामिक है यावत् अनवस्थित है? उ. गौतम! वह आनुगामिक भी है यावत् अनवस्थित भी है। दं. २१. इसी प्रकार मनुष्यों के अवधिज्ञान के लिए जानना चाहिए। दं. २२-२४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, और वैमानिक देवों का कथन नारकों के जैसा है। ९६. मनःपर्यवज्ञान का लक्षण मनःपर्यवज्ञान सभी जीवों के मन में सोचे हुए अर्थ को प्रकट करने वाला है और मनुष्य क्षेत्र में सीमित तथा चारित्रयुक्त साधु के क्षयोपशम गुण से उत्पन्न होने वाला है। ९७. मनःपर्यवज्ञान के भेद वह (मनःपर्यवज्ञान) दो प्रकार का है, यथा१. ऋजुमति, २. विपुलमति। दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं। -पण्ण.प.३३, सु.२०२७-२०३१ ९६. मणपज्जवनाणस्स लक्खणं मणपज्जवणाणं पुण,जणमणपरिचिंतियत्थपागडणं। माणुसखेत्तणिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवओ॥५५॥ -नंदी.सु.३८ ९७. मणपज्जवनाणस्स भेया तं च दुविहं उप्पज्जइ,तं जहा१. उज्जुमई य, २. विउलमई य२। ___-नंदी. सु.३६ (ख) ९८. मणपज्जवणाणस्स सामित्त परूवणंप. से कि तं मणपज्जवनाणं? मणपज्जवनाणे णं भन्ते ! किं मणुस्साणं उप्पज्जइ, अमणुस्साणं? उ. गोयमा ! मणुस्साणं, णो अमणुस्साणं। प. जइ मणुस्साणं-किं सम्मुच्छिममणुस्साणं, गब्भवक्कं-तिय मणुस्साणं? ९८. मनःपर्यवज्ञान के स्वामित्व का प्ररूपणप्र. भन्ते ! मनःपर्यवज्ञान का क्या स्वरूप है ? भन्ते ! यह मनःपर्यव ज्ञान मनुष्यों को उत्पन्न होता है या __ अमनुष्यों को उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! (मनःपर्यवज्ञान) मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है, ___ अमनुष्यों को नहीं होता है। प्र. यदि मनुष्यों को उत्पन्न होता है तो क्या सम्मूर्छिम मनुष्यों को उत्पन्न होता है या गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! सम्मूर्छिम मनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता किन्तु गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को उत्पन्न होता है। प्र. यदि गर्भज मनुष्यों को ही मनःपर्यवज्ञान होता है तो क्या कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है? अकर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है? या अन्तरद्वीपज गर्भज मनुष्यों को होता है? उ. गौतम कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है, अकर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता है, अन्तरद्वीपज गर्भज मनुष्यों को भी उत्पन्न नहीं होता है। उ. गोयमा ! णो सम्मुच्छिममणुस्साणं, गब्भवतिय मणुस्साणं उपज्जइ। प. जइ गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं किं कम्मभूमिअ-गब्भवक्कंतिय मणुस्साणं? अकम्मभूमिअ-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं? अंतरदीवग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं? उ. गोयमा ! कम्मभूमिअ-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, णो अकम्मभूमिअ- गब्भवक्कंतिय - मणुस्साणं, णो अंतरदीवग-गब्भवक्कंतिय मणुस्साणं, १. (क) विया.स.१६,उ.१०,सु.१ (ख) सम.सु.१५३ २. (क) ठाणं.अ.२,उ.१,सु.६०/१६ (ख) राय.सु.२४१
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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