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________________ ६७० जोयण असंखेज वा,जोयण असंखेज्जपुहत्तं वा, उक्कोसेणं लोग वा, पासित्ता णं पडिवएज्जा। से तं पडिवाइ ओहिनाणं -नंदी. सु. २३ (६) अपडिवाइ-ओहिनाणस्स परूवणंप. से किं तं अपडिवाइ ओहिनाणं? उ. अपडिवाइ ओहिनाणं जेणं अलोगस्स एगमवि आगासपएसं पासेंज्जा तेण परं अपडिवाइ ओहिनाणं। से तंअपडिवाइ ओहिनाणं। -नंदी.सु.२४ ८८. ओहिनाणस्स खेत्तं जावइया तिसमयाहारगस्स, सुहुमस्स पणगजीवस्स। ओगाहणा जहन्ना,ओहीखेतं जहन्नं तु ॥४५॥ सव्वबहुअगणिजीवा,णिरंतर जत्तियं भरिज्जसु। खेत्तं सव्वदिसागं, परमोही खेत्तनिद्दिट्ठो॥४६॥ अंगुलमावलियाणं भागमसंखेज्ज दोसु संखेज्जा। द्रव्यानुयोग-(१) असंख्यात योजन या असंख्यातयोजनपृथक्त्व, अथवा उत्कृष्ट रूप से सम्पूर्ण लोक को देखकर जो अवधिज्ञान नष्ट हो जाता है उसे प्रतिपाति अवधिज्ञान कहते हैं। यह प्रतिपाति अवधिज्ञान का स्वरूप है। (६) अप्रतिपाति अवधिज्ञान का प्ररूपणप्र. अप्रतिपाति अवधिज्ञान क्या है? उ. जिस अवधिज्ञान से ज्ञाता अलोक के एक आकाश-प्रदेश को भी जानता है, देखता है अर्थात् जानने की क्षमता वाला हो जाता है वह अप्रतिपाति (जीवन पर्यन्त रहने वाला) अवधिज्ञान कहा जाता है। यह अप्रतिपाति अवधिज्ञान का स्वरूप है। ८८. अवधिज्ञान का क्षेत्र तीन समय के आहारक सूक्ष्म-निगोद जीव की जघन्य अवगाहना जितनी होती है उतना ही जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र है। समस्त सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अग्निकाय के जीव सभी दिशाओं में जितना क्षेत्र निरन्तर परिपूर्ण करें, उतना ही क्षेत्र परमावधिज्ञान का कहा गया है। यदि अवधिज्ञानी क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानता है तो काल से आवलिका के असंख्यातवें भाग को जानता है। यदि क्षेत्र से अंगुल के संख्यातवें भाग को जानता है तो काल से आवलिका का संख्यातवां भाग जानता है। यदि क्षेत्र से अंगुलप्रमाण क्षेत्र को देखता है तो काल से आवलिका से कुछ कम देखता है। यदि सम्पूर्ण आवलिका प्रमाण काल देखता है तो क्षेत्र से अंगुलपृथक्त्व (अनेक अंगुल) प्रमाण क्षेत्र को देखता है। यदि अवधिज्ञानी क्षेत्र से एक हाथ क्षेत्र देखे तो काल से कुछ न्यून एक मुहूर्त देखता है और काल से कुछ कम एक दिन देखे तो क्षेत्र से एक गाउ (कोस परिमाण) देखता है। यदि क्षेत्र से योजन परिमाण (चार कोस) देखे तो काल से दिवस पृथक्त्व तक देखता है। यदि काल से किंचित् न्यून एक पक्ष देखे तो क्षेत्र से पच्चीस योजन पर्यन्त देखता है। यदि क्षेत्र से सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को देखे तो काल से अर्धमास परिमित (भूत भविष्यत्) काल को जाने। यदि क्षेत्र से जम्बूद्वीप पर्यन्त देखे तो काल से एक मास से भी अधिक भूत, भविष्य काल को देखता है। यदि क्षेत्र से मनुष्यलोक परिमाण क्षेत्र को देखे तो काल से एक वर्ष पर्यन्त भूत, भविष्य काल को देखता है। यदि क्षेत्र से रुचक क्षेत्र पर्यन्त देखे तो काल से वर्ष पृथक्त्व (अनेक वर्ष) भूत और भविष्यत् काल को जानता है। यदि अवधिज्ञानी काल से संख्यातकाल को जाने तो क्षेत्र से संख्यात द्वीप-समुद्र पर्यन्त जाने और असंख्यात काल जानने पर क्षेत्र से द्वीपों एवं समुद्रों को भजना से जाने अर्थात् कोई संख्यात और कोई असंख्यात द्वीप-समुद्र जानता है। अंगुलमावलियंतो आवलिया अंगुलपुहत्तं॥४७॥ हत्थम्मि मुहुत्तंतो, दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्यो। जोयण दिवसपुद्दत्तं, पक्वतो पण्णवीसाओ॥४८॥ भरहम्मि अद्धमासो, जंबुद्दीवम्मि साहिओ मासो। वासं च मणुयलोए, वासपुहत्तं च रुयगम्मि ॥४९॥ संखेज्जम्मि उ काले दीव-समुद्दा वि होंति संखेज्जा। कालम्मि असंखेज्जे दीव-समुद्दा उ भइयव्वा ॥५०॥
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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