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( ६६६ । ९. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं खीरकुम्भं वा
दधिकुम्भं वा, घयकुम्भं वा, मधुकुम्भं वा, पासमाणे पासइ, उप्पाडेमाणे वा उप्पाडेइ, उप्पाडितमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ
जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ। १०. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं सुरावियडकुम्भं वा
सोवीरवियडकुम्भं वा, तेल्लकुम्भं वा, वसाकुम्भं वा, पासमाणे पासइ, भिंदमाणे भिंदइ भिन्नमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झइ, दोच्चे भवग्गहणे सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ।
११. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं पउमसरं कुसुमियं
पासमाणे पासइ, ओगाहमाणे ओगाहइ, ओगाढमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइजाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ।
द्रव्यानुयोग-(१) ९. कोई भी स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में एक बड़े क्षीर कुम्भ
को, दधि कुम्भ को, घृत कुम्भ को, या मधु कुम्भ को देखे और उसे उठाये और स्वयं ने उसे उठाया है ऐसा स्वयं को माने और तुरन्त जागे तो उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का
अन्त करता है। १०. कोई भी स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में बड़ा सुरा के विकट
कुम्भ को, सौवीर के विकट कुम्भ को, तेलकुम्भ को या वसाकुम्भ को देखता है और देखकर भेदन करता है, फोड़ता है और स्वयं ने उसे फोड़ा है, ऐसा स्वयं को मानता है और तत्काल जागता है तो दूसरे भव में सिद्ध होता है यावत् सर्व
दुःखों का अन्त करता है। ११. कोई भी स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में एक विशाल कुसुमित
पद्मसरोवर को देखता है, देखकर उसमें प्रवेश करता है और प्रवेश करके और स्वयं ने उसमें प्रवेश किया है, ऐसा अपने को मानता है और तत्काल जागता है तो उसी भव में सिद्ध
होता है यावत् सर्व दुःखों का अंत करता है। १२. कोई भी स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में हजारों तरंगों और
कल्लोलों से व्याप्त एक महासागर को देखता है, देखकर तैरता है और तैरकर उसे तैर चुका है ऐसा स्वयं को माने और उसी क्षण जागता है तो उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों
का अन्त करता है। १३. कोई भी स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में एक विशाल रत्नों से
बना हुआ भवन देखे, देखकर उसमें प्रवेश करे, प्रवेश करके स्वयं ने उसमें प्रवेश किया है ऐसा स्वयं को मानता है और उसी क्षण जागता है तो उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सर्व
दुःखों का अन्त करता है। १४. कोई भी स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में सर्व रत्नमयी एक
विशाल विमान को देखता है, देखकर उस पर चढ़ता है, चढ़कर स्वयं उस पर चढ़ा, ऐसा स्वयं को है मानता है और तत्क्षण जागे तो उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है।
१२. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं सागरं
उम्मीवीयीसहस्सकलियं पासमाणे पासइ, तरमाणे तरइ, तिण्णिमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ।
१३. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं भवणं सव्वरयणामयं
पासमाणे पासइ, अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसइ, अणुप्पविट्ठमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं
करेइ। १४. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं विमाणं
सव्वरयणामयं पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ।
-विया.स.१६, उ.६, सु.२०-३५ ८६. पच्चक्खनाणस्स भेयाप. से किं तं पच्चक्खं?
पच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं,तं जहा
१. इंदियपच्चक्खं च, २. णो इंदियपच्चक्खं च । प. से किं तं इंदियपच्चक्खं? उ. इंदियपच्चक्खं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा
१. सोइंदियपच्चक्खं, २. चक्विंदियपच्चक्वं, ३. घाणिंदियपच्चक्खं, ४. रसणेंदियपच्चक्खं, ५. फासिंदियपच्चक्खं।
से तं इंदियपच्चक्खं। प. से किं तंणो इंदियपच्चरखं? उ. णो इंदियपच्चक्खं तिविहं पण्णत्तं,तं जहा
८६. प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद
प्र. प्रत्यक्ष ज्ञान क्या है? उ. प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा
१. इन्द्रिय-प्रत्यक्ष, २. नो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । प्र. इन्द्रिय प्रत्यक्ष क्या है? उ. इन्द्रिय प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का कहा गया है, यथा
१. श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष, २. चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष ३. घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष ४. जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष, ५. स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष।
यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। प्र. नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष क्या है? उ. नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष तीन प्रकार का कहा गया है, यथा