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________________ .६५८ प. कम्हा ? उ. अणुवओगो दव्वमिति कटु। नेगमस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वसुयं, दोण्णि अणुवउत्ता आगमओ दोण्णि दव्वसुयाई, तिण्णि अणुवउत्ता आगमओ तिण्णि दव्वसुयाइं, एवं जावइया अणुवउत्ता तावइयाई ताई नेगमस्स आगमओ दव्यसुयाई। एवमेव ववहारस्स वि। संगहस्स एगो वा अणेगा वा अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा आगमओ दव्वसुयं वा दव्वसुयाणि वा,से एगे दव्वसुए। उज्जुसुयस्स एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वसुयं, पुहत्तं नेच्छइ। तिपहं सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थू। - उ प.कम्हा ? उ. जइ जाणइ अणुवउत्ते न भवइ, जइ अणुवउत्ते से जाणए न भवइ। सेतं आगमओ दव्वसुयं। प. से किं तं णोआगमओ दव्वसुयं? उ. णो आगमओ दव्वसुयं तिविहं पण्णत्तं,तं जहा १. जाणयसरीरदव्वसुयं, २. भवियसरीरदव्वसुयं, ३. जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्वसुयं। प. से किं तं जाणयसरीरदव्वसुयं? उ. जाणयसरीरदव्वसुयं सुतत्तिपदत्याहिकारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुत-चावित-चत्तदेहं जीवविप्पजढं सेज्जागयं वा,संथारगयं वा, सिद्धसिलातलगयं वा। अहो ! णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिङेणं भावेणं "सुए" इ पयं आघवियं पण्णवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उवदंसियं। द्रव्यानुयोग-(१)) प्र. ऐसा क्यों? उ. उपयोग से रहित होने के कारण ही आगमद्रव्य-श्रुत कहा जाता है। नैगमनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त आत्मा एक आगमद्रव्य-श्रुत है, दो अनुपयुक्त आत्माएं दो आगमद्रव्य-श्रुत हैं, तीन अनुपयुक्त आत्माएं तीन आगमद्रव्य-श्रुत हैं। इसी प्रकार जितनी भी अनुपयुक्त आत्माएं हैं, वे सभी उतनी ही नैगमनय की अपेक्षा आगमद्रव्य-श्रुत हैं। इसी प्रकार (नैगमनय के सदृश ही) व्यवहारनय भी आगमद्रव्य-श्रुत के भेद स्वीकार करता है। संग्रहनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त आत्मा और अनेक अनुपयुक्त आत्माएं एक द्रव्य-श्रुत और अनेक द्रव्य-श्रुत है। ये सभी एक द्रव्य-श्रुत ही हैं। ऋजुसूत्रनय के मत से एक अनुपयुक्त आत्मा एक आगमद्रव्य-श्रुत है। वह पृथक्त्व (भिन्नता) को स्वीकार नहीं करता है। तीनों शब्दनय-शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत नय ज्ञायक यदि अनुपयुक्त हो तो उसे असत् मानते हैं। प्र. ऐसा क्यों?. . जो ज्ञायक है वह उपयोग शून्य नहीं होता है और जो उपयोगरहित है उसे ज्ञायक नहीं कहा जा सकता है। यह आगम से द्रव्य-श्रुत का स्वरूप है। प्र. नोआगमद्रव्यश्रुत क्या है ? उ. नोआगमद्रव्यश्रुत तीन प्रकार का कहा गया है, यथा १. ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुत, २. भव्यशरीरद्रव्यश्रुत, ३. ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्रुत। प्र. ज्ञायकशरीर-द्रव्यश्रुत क्या है? उ. श्रुत अर्थाधिकार के ज्ञाता के व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त, जीवरहित शरीर को शय्यागत, संस्तारकगत अथवा सिद्धशिलातलगत देखकर कोई कहेअहो ! इस शरीररूप से परिणत पुद्गलसंघात द्वारा जिनोपदेशित भाव से "श्रुत" इस पद की गुरु से वाचना ली थी, शिष्यों को सामान्य रूप से प्रज्ञापित और विशेष रूप से प्ररूपित, दर्शित, निदर्शित, उपदर्शित किया था, उसका वह शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यक है। प्र. इसका क्या दृष्टान्त है? उ. यह मधु का घड़ा था, यह घी का घड़ा था। यह ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुत है। प्र. भव्यशरीरद्रव्यश्रुत क्या है ? उ. भव्यशरीरद्रव्यश्रुत का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए प. जहा को दिट्ठतो? उ. अयं महुकुंभेआसी, अयं घयकुंभे आसी। __ से तं जाणयसरीरदव्वसुयं। प. से किं तं भवियसरीरदव्वसुयं? उ. भवियसरीरदव्वसुयं
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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