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________________ ज्ञान अध्ययन पडिमा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाई पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविज्जति । दुहविवागेसु णं- पाणाइवाय-अलियवयण- चोरिक्ककरणपरदारमेहुण- ससंगयाए महतिव्वकसाय इंदिय-प्पमायपावप्पओय असुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पाव अणुभाग- फलवियागा। निरयगड-तिरिक्खजोणि-बहुविहवसणसव-परंपराप बज्राणं, मणुयत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पायगा होति फलविवागा, वह-वसणविणास-नासा - कन्नोट्ठ- गुट्ठ-कर-चरणनहच्छेयण- जिब्भच्छेयण अंजण-कडग्गिदाहण-गयचलणमलण-फालण-उल्लंबणसूल-लया-लउड लट्ठिमंजण-राउ-सीम-तत्ततेल्ल- कल कलअभिसिंचण कुंभिपाग कंपण धिरबंधण वेहझकतण पतिभयकरकरपलीवणादिदारुणाणि दुक्खाणि अणोवमाणि, - बहुविविहपरंपराणुबद्धा ण मुच्चंति पावकम्मवल्लीए। अवेयइत्ता हु णत्थि मोक्सो, तवेण चिद्दधणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स बावि हुज्जा । एतो य सुहबिबागेसु सील-संजम नियम- गुण तयोवहाणेसु साहुसु सुविहिएसु अणुकंपाऽऽ सयप्पओगतिकाल- मइविसुद्ध भत्तपाणाई पययमणसा हियसुहनीसेस तिव्वपरिणामनिच्छियमई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धा जह य निव्यत्तेति उ बोहिलाभ, जह य परित्तीकरेति नर-नरय- तिरिय-सुरगइगमणविपुलपरियट्ट अरइ भय विसाय सोग मिच्छतसेल्सकड अन्नाणतमंधकारचिदिखल्लसुदुत्तारं जर मरण - जोणिसंखुभियचक्कवालं सोलसकसाय - - प्रतिमा, संलेखनाएं, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, (संधारा) देवलोक गमन, सुकुल- प्रत्यागमन, पुन बोधिलाम, और उनकी अन्तक्रियाएं कही गई है। दुःख - विपाक के - प्राणांतिपात, असत्य वचन, चौर्य कर्म, पर-दार- मैथुन, ससंगता, महातीव्र कषाय, इन्द्रिय ( विषय सेवन), प्रमाद, पाप- प्रयोग और अशुभ अध्यवसानों से संचित पापकर्मों के उन पापरूप फल-विपाकों का वर्णन किया गया है। ६३१ जिन्हें नरकगति और तिर्यग्योनि में बहुत प्रकार के असीम संकटों की परम्परा में पड़कर भोगना पड़ता है। वहां से निकलकर मनुष्य भव में आने पर भी जीवों को पाप कर्मों के शेष रहने से अनेक पापरूप अशुभफलविपाक भोगने पड़ते हैं, जैसे-यथ वृषणविनाश नासिका छेदन, कर्ण कर्तन, ओष्ठ-छेदन, अंगुष्ठ-छेदन, हस्त-कर्तन, चरण-छेदन, नख - छेदन, जिह्वा-छेदन, , लोहे की गर्म शलाका से आंखों को आंजना, कटाग्निदाह, हाथी के पैरों के नीचे डालकर शरीर को कुचल्याना, फरसे आदि से शरीर को फाड़ना, फांसी लगाकर वृक्ष के लटकाना, त्रिसूल, लता, लकड़ी और लाठी से शरीर को भग्न करना, तपे हुए कड़कड़ाते रांगा, सीसा एवं तेल से शरीर का अभिसिंचन करना, कुम्भी में पकाना, शरीर में कंपन पैदा करने वाला अतिशीतल जल शीत काल में डालना, स्थिर करने के लिए काष्ट आदि में पैर फंसाकर बांधना, भाले आदि से बचना वर्द्धकर्तन बधिया करना या चमड़ी उधेड़ना, अति " भय-कारक हाथों में अग्नि जलाना आदि अनुपम दारुण दुःखों का आख्यान किया गया है। दुःखों की विविध परम्परा से अनुबद्ध जीव पाप कर्म रूपी बेल से मुक्त नहीं होते। कर्मों का वेदन किए बिना उनसे छुटकारा नहीं होता किन्तु कभी प्रबल धृतिबल से कटिबद्ध तप के द्वारा उनका शोधन भी हो सकता है। सुखविपाक में शील, संयम, नियम, गुण और तप उपधान को धारण करने वाले सुविहित साधुओं को अत्यन्त आदर वाले, हितकारक, सुखकारक और कल्याणकारक तीव्र अध्यवसाय तथा निश्चित मति वाले व्यक्ति अनुकम्पा के आशय प्रयोग से तथा दान देने की कालिक मति से विशुद्ध तथा प्रयोग- शुद्ध भक्त-पान देकर जिस प्रकार बोधि को प्राप्त करते हैं, उसका आख्यान किया गया है। इसमें नर, नरक, तिच एवं देवगति-गमन सम्बन्धी जन्म मरणों को परिमित करते हैं तथा जो अरति, भय, विस्मय, शोक और मिथ्यात्वरूप पर्वतों से संकुल है, गहन-अज्ञानअन्धकार रूप कीचड़ से परिपूर्ण होने से जिसका पार उतरना कठिन है, जिसका चक्रवाल जरा, मरण योनिरूप मगरमच्छों से क्षोभित हो रहा है, जो अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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