SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 731
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२४ उ. एवं खलु जंबू!" -उवा. अ.२,सु.१-२ (घ) उवासगदसांगस्स उवसंहारो उवासगदसाणं सत्तमस्स अंगस्स एगो सुयक्खंधो, दस अज्झयणा एक्कसरगा दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जति। तओ सुयखंधो समुद्दिसइ, अणुण्णविज्जइ, दोसु दिवसेसु अंगं तहेव। -उवा. अ.१०, सु.२८ २६.(८) अंतगडदसाओ प. से किं तं अंतगडदसाओ? उ. अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराइं उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाईरायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढि विसेसा, भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई, पडिमाओबहुविहाओ, खमा, अज्जवं, मद्दवं च, सोयं च सच्चसहियं, सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभं, अकिंचणया, तवोचियाओ किरियाओ समिइगुत्तीओ चेव, तह अप्पमायजोगो, सज्झायज्झाणेण य उत्तमाणं दोण्हंपि लक्खणाई, पत्ताण य संजमुत्तमं, जियपरीसहाणं चउव्विहकम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो, परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं, पायोवगओ य जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता, द्रव्यानुयोग-(१) उ. जम्बू ! (आगे का कथानक धर्मकथानुयोग में देखें) (घ) उपासकदशा सूत्र का उपसंहार सातवें अंग उपासकदशा में एक श्रुतस्कन्ध है। दस अध्ययन हैं, उनमें एक सरीखा वर्णन है। इसका दस दिनों में उद्देशन (वांचन) किया जाता है। तत्पश्चात् सूत्र को स्थिर (कंठस्थ) करने की आज्ञा दी जाती है फिर दो दिनों में अनुमति दी जाती है। २६.(८) अन्तकृत्दशा सूत्र प्र. अन्तकृत्दशा सूत्र में क्या (वर्णन) है? उ. अन्तकृत्दशा में कर्मों का अन्त करने वाले (महापुरुषों) के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, उनके माता-पिता, समवसरण, (उनके) धर्माचार्य, धर्मकथाएं इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-परिग्रहण, तप-उपधान, अनेक प्रकार की प्रतिमाएं, क्षमा, आर्जव, मार्दव, सत्य, शौच, सत्तरह प्रकार का संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य तप, त्याग, क्रियाओं, समितियों और गुप्तियों का वर्णन है, अप्रमाद-योग और स्वाध्याय-ध्यान इन दोनों उत्तम गुणों एवं उत्तम संयम को प्राप्त करके, परीषहों को सहन करने वाले चार घातिकर्मों का क्षय होने पर केवलज्ञान को प्राप्त करने वाले, जिन मुनियों ने जितने काल तक जैसे श्रमण-पर्याय का पालन किया,पादपोपगमन द्वारा जितने समय के भोजनों का त्यागकर कर्मों का अन्त करने वाले अज्ञानान्धकार रूप रज के पुंज से विप्रमुक्त होकर अनुत्तर (मोक्ष) सुख को प्राप्त होने वाले मुनिवरों का वर्णन है। इसी प्रकार के अन्य अनेक अर्थों का इस अंग में विस्तार से प्ररूपण किया गया है। अन्तकृत्दशा में परिमित वाचनाएं हैं यावत् संख्यात संग्रहणियाँ हैं। अंगों की अपेक्षा यह आठवां अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दस अध्ययन है, सात वर्ग है, दस उद्देशनकाल हैं, दस समुद्देशनकाल हैं, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद हैं। संख्यात अक्षर हैं यावत् उदाहरण देकर समझाए गए हैं। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला तदात्मरूप ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार इस अंग में चरण-करण की विशिष्ट प्ररूपणा की है यावत् उपदर्शन किया है। एए अन्ने य एवमाई अस्था वित्थरेणं परूविज्जति। अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगठ्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे सुयखंधे, दस अज्झयणा, सत्त वग्गा, दस उददेसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता, संखेज्जा अक्खरा जाय उवदंसिज्जंति। से एवं आया, एवं णायां, एवं विण्णाया। आघविज्जति जाव एवं चरण-करण-परूवणया उवदंसिज्जति। १. (क) इसी प्रकार सभी (३-१०)अध्ययनों का उपोद्घात है। (ख) इसी प्रकार अंतगडदसा, अणुत्तरोववाइयदसा, विपाकसूत्र के द्वितीय आदि अध्ययनों की उत्थानिकाएं समझ लेनी चाहिए।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy