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ज्ञान अध्ययन
उग्गहं गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, परिसा निग्गया, सेणिओ वि निग्गओ;
धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया,
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते जाव सुक्कज्झाणोवगए विहरइ।
- ६१९ ) यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। भगवान को वन्दना करने के लिए परिषद् निकली। श्रेणिक राजा भी निकला। भगवान् ने धर्मदेशना दी। उसे सुनकर परिषद् वापिस चली गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभति नामक अनगार श्रमण भगवान महावीर से न
अधिक दूर और न अधिक समीप स्थान पर रहे हुए यावत् निर्मल उत्तम ध्यान में लीन होकर स्थित थे। तत्पश्चात् जिन्हें श्रद्धा उत्पन्न हुई है, ऐसे इन्द्रभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से इस प्रकार प्रश्न किया
(आगे का वर्णन जीव प्रज्ञप्ति में देखें) (च) प्रथम श्रुतस्कन्ध का निक्षेप
जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर यावत् सिद्धगति नामक स्थान प्राप्त द्वारा छठे अंग ज्ञाता के प्रथम श्रुतस्कन्ध का यह अर्थ कहा है, ऐसा मैं कहता हूँ।
तए णं से इंदभूई नाम अणगारे जायसड्ढे जाव एवं वयासी।
-णाया. सुय. १, अ.६, सु.१-४
(च) पढमसुयक्खंधस्स निक्खेवो
एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स णायस्स सुयखंधस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि।
-णाया.सु.१,अ.१९,सु.३२ (छ) पढमसुयक्खंधस्स पठणविही
तस्स (पढमस्स)णं सुयक्खंधस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एक्कसरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समपंति।
-णाया. सु. १, अ.१९, सु.३३ (ज) णायाधम्म कहाणगस्स बिईय सुयक्खंधस्स उक्खेवो
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे होत्था, वण्णओ।
तस्स णं रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरच्थिमे दिसीभाए तत्थ णं गुणसीलए णामं चेइए होत्था, वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मा णाम थेरा भगवतो जाइसंपन्ना, कुलसंपन्ना जाव चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगया पंचहिं अणगारसएहिं सद्धि संपरिवुडा पुव्वाणुपुव्विं चरमाणा गामाणुगाम दूइज्जमाणा, सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसीलए चेइए जाव संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।।
(छ) प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययन की विधि
इस प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे गए हैं। प्रतिदिन एक-एक अध्ययन का पठन करने से उन्नीस दिनों में यह
श्रुतस्कंध पूर्ण होता है। (ज) ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का उपोद्घात
उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था, उसका वर्णन (औपपातिक सूत्र के अनुसार यहां) कहना चाहिए। उस राजगृह के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग (ईशान कोण) में गुणशील नामक चैत्य था। उसका भी वर्णन करना चाहिए। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नामक स्थविर जो जाति सम्पन्न, कुल सम्पन्न यावत् चौदह पूर्वी और चार ज्ञानों से युक्त थे। वे पांच सौ अनगारों से परिवृत होकर अनुक्रम से चलते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हुए और सुखे-सुखे विहार करते हुए जहां राजगृह नगर था और जहां गुणशील चैत्य था वहां पधारे यावत् संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विराजमान हुए। (सुधर्मा स्वामी को वन्दना करने के लिए) परिषद् निकली (सुधर्मा स्वामी ने) धर्म का उपदेश दिया। तत्पश्चात् परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में वापिस चली गई। उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार ने यावत् इस प्रकार पूछा
, परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिस
पाउब्भूया, तामेव दिसिं पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी अज्जजंबू णामं अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी
(क) णाया. सुय. १, अ. १०,सु. १-४ (ख) णाया. सुय. १, अ. ११, सु. १-३
२. द्वितीय श्रुतस्कन्ध का उपसंहार सूत्र इसी प्रकार है।