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________________ ५८६ द्रव्यानुयोग - (१) के समान ही जानते-देखते हैं, किन्तु उत्कृष्ट अलोक में लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को जानते-देखते हैं। वाणव्यन्तर देव द्वितीय से दसवें भवनपति देव के समान जानते-देखते हैं। ज्योतिष्क देव जघन्य संख्यात द्वीप-समुद्रों को तथा उत्कृष्ट भी संख्यात द्वीप समुद्रों को जानते-देखते हैं। वैमानिक देव जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानते-देखते हैं किन्तु इनका उत्कृष्ट ज्ञान-क्षेत्र भिन्न है। नरक पृथ्वियों का तथा अपने विमानों तक का ज्ञान इन्हें होता है। वैमानिकों में अनुत्तरीपपातिक देव सम्पूर्ण लोक नाड़ी को जानते-देखते हैं। अवधिज्ञान को स्वरूप की दृष्टि से अलग-अलग आकृतियों वाला माना गया है, यथा-नौका, पल्लक, पटह, झालर आदि की आकृतियों वाला (इस आकृति जैसे क्षेत्र को जानने वाला) अवधिज्ञान बतलाया गया है। देवों एवं नारकों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अप्रतिपाती एवं अवस्थित होता है जबकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों एवं मनुष्यों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अनानुगामिक, वर्द्धमान, हीयमान, प्रतिपाती, अप्रतिपाती, अवस्थित एवं अनवस्थित सभी प्रकार का होता है। मनः पर्यवज्ञान से मन में चिन्त्यमान पदार्थों का ज्ञान होता है। इस ज्ञान के सम्बन्ध में दार्शनिकों की दो धाराएँ हैं। एक धारा आवश्यकनियुक्ति (गाथा ७६) तथा तत्वार्थ भाष्य (१.२९) के अनुसार है। इसके अनुसार मनःपर्याय ज्ञान परकीय मन में चिन्त्यमान पदार्थों को जानता है। दूसरी परम्परा के अनुसार मनःपर्यायज्ञान चिन्तन में लगे मनोद्रव्य की पर्यायों को साक्षात् जानता है किन्तु चिन्त्यमान पदार्थों को अनुमान से जानता है। यह परम्परा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा ८१४) एवं नन्दीचूर्णि के अनुसार है। मनःपर्याय ज्ञान मनुष्य क्षेत्र में रहने वाले साधु को क्षयोपशम से होता है। इसके स्वामित्व का विचार करने पर ज्ञात होता है कि मनःपर्याय ज्ञान संख्यातवर्ष की आयुवाले पर्याप्त कर्मभूमिज गर्भज लब्धिधारी अप्रमादी सम्यग्दृष्टि मनुष्यों (साधुओं) को ही होता है, अन्य को नहीं । मनः पर्यवज्ञान दो प्रकार का होता है- १. ऋजुमति और, २. विपुलमति । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मनः पर्यवज्ञान विशिष्ट एवं विशुद्ध होता है। यह ऋजुमति की अपेक्षा सूक्ष्मतर और अधिक विशेषों को स्पष्ट रूप से जानता है। एक अन्तर यह है कि ऋजुमति ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् कदाचित् समाप्त भी हो सकता है किन्तु विपुलमति मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति होने तक निरन्तर बना रहता है। केवलज्ञान अनन्त ज्ञान है। इसके द्वारा सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों का उनकी पर्यायों सहित त्रैकालिक ज्ञान होता है। केवलज्ञान दो प्रकार का प्रतिपादित है- १. भवस्थ केवलज्ञान और २ सिद्ध-केवलज्ञान। केवलज्ञानावरण का क्षय होने पर संसारस्थ वीतरागियों को जो केवलज्ञान होता है वह भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है तथा सिद्धों का केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान कहा जाता है। वैसे इन दोनों ज्ञानों में स्वरूप की दृष्टि से कोई भेद नही होता । भवस्थ केवलज्ञान सयोगी एवं अयोगी को होने से सयोगि भवस्थ केवलज्ञान तथा अयोगि भवस्थ केवलज्ञान के दो भेदों में विभक्त होता है। इन दोनों को प्रथमसमय, अप्रथमसमय अथवा चरम समय और अचरमसमय इन दो-दो प्रकारों में विभक्त किया गया है। सिद्ध केवलज्ञान को अनन्तर सिद्ध और परम्पर सिद्ध (द्वितीय आदि समय वाले सिद्ध के दो प्रकारों में बाँटा जाता है। अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान इन सिद्धों के १५ प्रकार का होने से १५ प्रकार का माना गया है। अनन्तर सिद्ध के १५ प्रकार हैं-तीर्थ सिद्ध, अतीर्थ सिद्ध, तीर्थङ्कर सिद्ध, अतीर्थङ्कर सिद्ध आदि । परम्पर सिद्ध केवलज्ञान अनेक प्रकार का है क्योंकि ये सिद्ध अप्रथमसमय सिद्ध, द्विसमय सिद्ध, त्रिसमय सिद्ध यावत् दससमय सिद्ध, संख्यातसमय सिद्ध, असंख्यातसमय सिद्ध, अनन्तसमय सिद्ध आदि भेदों से अनेक प्रकार के होते हैं। केवलज्ञान का वैशिष्ट्य प्रतिपादित करते हुए नन्दी सूत्र में कहा गया है कि यह सम्पूर्ण द्रव्यों, परिणामों, भावों को जानने का कारण है। यह अनन्त, शाश्वत तथा अप्रतिपाती है तथा यह एक ही प्रकार का है। केवलज्ञानी इन्द्रियों से नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं। क्योंकि इन्द्रियों से समस्त पदार्थों एवं उनकी पर्यायों को एक साथ नहीं जाना जा सकता है। केवली सभी दिशाओं में परिमित भी जानते देखते हैं और अपरिमित भी जानते-देखते हैं। वे सब ओर से जानते-देखते हैं, सभी कालों को जानते-देखते हैं। उनका ज्ञान एवं दर्शन अनन्त है और निरावरण है। केवली सिद्धों एवं चरम शरीरियों को भी जानता-देखता है किन्तु छद्मस्थ ऐसा नहीं कर पाता। वह किसी आप्त पुरुष से सुनकर या प्रमाण द्वारा जानता-देखता है। प्रमाण को आगम में चार प्रकार का बतलाया गया है- १. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. औपम्य और ४. आगम । इन चारों प्रमाणों का अनुयोगद्वार सूत्र में विस्तार से उल्लेख है। तत्वार्थ सूत्र में तथा उत्तरकालीन जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के दो भेद किए हैं - १. प्रत्यक्ष और २. परोक्ष । प्रत्यक्ष के उन्होंने पुनः दो भेद किए हैं-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी इन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय (मन) के भेद से दो प्रकार का है तथा पारमार्थिक प्रत्यक्ष के सकल एवं विकल ये दो भेद किए गए हैं। सकल प्रत्यक्ष में केवलज्ञान का समावेश होता है तथा विकल प्रत्यक्ष में अवधिज्ञान एवं मनः पर्यव ज्ञान की गणना होती है। सिद्धों एवं भवस्य केवालयों के केवलज्ञान में कोई अन्तर नहीं होता है। दोनों समान रूप से जानते हैं। किन्तु केवली (भवस्थ) उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषकार - पराक्रम से युक्त होते हैं जबकि सिद्ध इनसे रहित होते हैं। इसलिए केवलियों से कोई प्रश्न पूछे जाने पर वे उसका उत्तर देते हैं किन्तु सिद्ध नहीं देते है। केवली अपनी आँखें बन्द करते एवं खोलते हैं, जबकि सिद्ध नहीं। इस प्रकार अंगों के संकोच विस्तार, खड़े रहना, सोना-बैठना आदि क्रियाओं की दृष्टि से केवली एवं सिद्धों में अन्तर है। केवली एवं सिद्धों में वेदनीय आदि धार अघाती कर्मों का तो अन्तर रहता ही है। छद्मस्थों एवं केवलियों के ज्ञान में अन्तर प्रतिपादित करते हुए स्थानांग सूत्र में कहा गया है कि छद्मस्थ दस बातों (पदार्थों) को सम्पूर्ण रूप से जानता- देखता नहीं है जबकि केवल इन्हें सर्वभाव से सम्पूर्ण रूप में जानता देखता है। ये दस (पदार्थ) वाते हैं- १. धर्मास्तिकाय, २. अथर्मास्तिकाप ३ आकाशास्तिकाय, ४. शरीर मुक्त जीव, ५. परमाणु पुद्गल, ६. शब्द, ७. गन्ध, ८. वायु, ९. यह जिन होगा या नहीं, 90. यह सभी दुःखों का
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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