SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 692
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान अध्ययन ५८५ स्थानांग सूत्र में पाप श्रुत के नौ प्रकार हैं, यथा-उत्पात, निमित्त, मन्त्र, आख्यायिका, चिकित्सा, कला, आवरण, अज्ञान और मिथ्या प्रवचन। समवायांग में पाप श्रुत के प्रसंग २९ प्रकार के प्रतिपादित हैं। इनमें भौम, उत्पात, स्वप्न, अन्तरिक्ष, अंग, स्वर, व्यंजन और लक्षण इन आठ भेदों के सूत्र, वृत्ति एवं वार्तिक के आधार पर ८४३-२४ भेद बनते हैं! फिर विकयानुयोग, विद्यानुयोग, मंत्रानुयोग, योगानुयोग और अन्यतीर्थिक प्रवृत्तानुयोग को मिलाकर २९ भेद हो जाते हैं। स्वप्न को पाप श्रुत में गिना गया है। अतः इसी प्रसंग में स्वप्न के सम्बन्ध में भी चर्चा हुई है। स्वप्न दर्शन पाँच प्रकार का बताया गया है - 9. यथार्थ, २. विस्तृत, ३ . चिन्ता स्वप्न, ४. तद्विपरीत और ५. अव्यक्त स्वप्न दर्शन। सोता हुआ एवं जागता हुआ प्राणी स्वप्न नहीं देखता है, किन्तु सुप्त-जागृत स्वप्न देखता है। इसे आधुनिक मनोविज्ञान में चित्त की अवचेतन अवस्था तथा अन्य भारतीय दर्शनों में स्वप्नावस्था ही कहां गया है। प्रत्यक्षज्ञान के नन्दीसूत्र में दो भेद किए गए हैं-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और २. नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष । पाँच इन्द्रियों के आधार पर इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष आदि पाँच भेद किए गए हैं। नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष के तीन भेद प्रतिपादित हैं- १. अवधिज्ञान, २. मनः पर्यवज्ञान और ३. केवलज्ञान। नोइन्द्रिय का अर्थ यहाँ मन नहीं, आत्मा है। मन से होने वाले प्रत्यक्ष को यहाँ अलग से नहीं गिना गया है। प्रमाण-प्रतिपादन करने वाले आचार्यों ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत इन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय (मन) प्रत्यक्ष ये दो भेद करके मन से होने वाले प्रत्यक्ष को भी पृथक् रूपेण स्थान दिया है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत वे अवधि आदि तीन ज्ञानों को गिनाते हैं, जिसे नन्दीसूत्र में नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में कहा गया है। क्षेत्र, काल आदि की मर्यादा से सीधे आत्मा के द्वारा जो रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है- १. भवप्रत्ययिक और २. क्षायोपशमिक। जन्म से होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक कहलाता है। यह देवों एवं नारकों को होता है। जन्म से प्राप्त नहीं होकर बाद में अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो अवधिज्ञान होता है वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है। यह मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों को होता है। क्षायोपशमिक (गुणप्रत्यय) अवधिज्ञान छह प्रकार का होता है- १. आनुगामिक, २. अनानुगामिक, ३ . वर्द्धमान, ४. हीयमान, ५. प्रतिपाती और ६. अप्रतिपाती । जो अवधिज्ञान जिस स्थान - विशेष में प्रकट हुआ है वह उस स्थान को छोड़ने पर भी ज्ञाता के साथ-साथ अनुगमन करे उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं। आनुगामिक अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है-१. अन्तगत और २. मध्यगत। अन्तगत अवधिज्ञान पुरतः मार्गतः और पार्श्वतः के भेद से तीन प्रकार का है। पुरतः आनुगामिक अवधिज्ञान से ज्ञाता आगे के प्रदेश में संख्यात असंख्यात योजन तक पदार्थों को देखता हुआ चलता है। पीछे के प्रदेश में संख्यात असंख्यात योजन तक पदार्थों को देखते हुए चलने वाले को मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान होता है। पार्श्वतः अवधिज्ञान से पाश्र्ववर्ती प्रदेश में संख्यात असंख्यात योजन तक के पदार्थों को देखते हुए चला जा सकता है। मध्यगत अवधिज्ञान से चारों ओर के संख्यात असंख्यात योजन तक के पदार्थों को देखते हुए ज्ञाता चलता है। अन्तगत एवं मध्यगत आनुगामिक अवधिज्ञान में एक अ "यह है कि अन्तगत अवधिज्ञान से अवधिज्ञानी एक दिशा में ही जानता-देखता है जबकि मध्यगत अवधिज्ञान से वह सभी दिशाओं में जानता देखता है। अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में किसी ज्ञाता को प्रकट होता है वह ज्ञाता उसी क्षेत्र में स्थित होकर संख्यात एवं असंख्यात योजन तक विशेष रूप से एवं सामान्य रूप से रूपी पदार्थों को जानता-देखता है, परन्तु अन्यत्र जाने पर नहीं जानता है, नहीं देखता है। अध्यवसायों के विशुद्ध होने पर एवं चारित्र की वृद्धि होने पर तथा आवरण कर्म-मल से रहित होने पर जो अवधिज्ञान दिशाओं एवं विदिशाओं में चारों ओर बढ़ता है उसे वर्द्धमान अवधिज्ञान कहते हैं। जो अवधिज्ञान ह्रास को प्राप्त होता है उसे हीयमान अवधिज्ञान कहा जाता है। यह अध्यवसायों की अशुभता एवं संक्लिष्ट चारित्र के कारण ह्रास को प्राप्त होता है। जो अवधिज्ञान एक बार प्रकट होकर नष्ट हो जाता है वह प्रतिपाती अवधिज्ञान कहलाता है तथा जो अवधिज्ञानी अपने अवधिज्ञान से अलोक के एक आकाश प्रदेश को भी जानता है-देखता है उसका अवधिज्ञान अप्रतिपाती (जीवन पर्यन्त रहने वाला) होता है। अवधिज्ञानी का जघन्य अवधिज्ञान कितना होता है तथा क्षेत्र एवं काल से अवधिज्ञान का क्या सम्बन्ध रहता है इसके विषय में भी इस अध्ययन में सामग्री निहित है। ऐसा कहा गया है कि तीन समय के आहारक सूक्ष्म-निगोद जीव की जघन्य अवगाहना जितनी होती है उतना ही जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र है तथा समस्त सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अग्निकाय के जीव सभी दिशाओं में जितना क्षेत्र निरन्तर पूर्ण करें उतना क्षेत्र परमावधि ज्ञानी का माना गया है। यदि अवधिज्ञानी क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानता है तो काल से आवलिका का संख्यातवाँ भाग जानता है। यदि क्षेत्र से मनुष्य लोक परिमाण क्षेत्र को जानता है तो काल से एक वर्ष पर्यन्त भूत-भविष्यत् काल को जानता है। अवधिज्ञान में काल की वृद्धि होने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों की वृद्धि होती है। क्षेत्र की वृद्धि होने पर काल की वृद्धि में भजना (विकल्प) है। अवधिज्ञान में द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल में वृद्धि की भजना (विकल्प) होती है, क्योंकि काल सूक्ष्म होता है किन्तु क्षेत्र उससे भी सूक्ष्मतर होता है। इसका कारण है कि अंगुल के प्रथम श्रेणी रूप क्षेत्र में असंख्यात अवसर्पिणियों जितने समय होते हैं। नारक, देव एवं पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का अवधिज्ञान देशावधि है; जबकि मनुष्यों का अवधिज्ञान देशावधि एवं सर्वावधि दोनों प्रकार का होता है। चौबीस दण्डकों में कौन अवधिज्ञानी कितने क्षेत्र को जानता देखता है इसका विचार करने पर ज्ञात होता है कि नैरयिकों में सबसे कम क्षेत्र ( अवधिज्ञान का ) सप्तमनरक के नैरयिक का होता है। वह जघन्य आधा गाऊ तथा उत्कृष्ट एक गाऊ पर्यन्त जानता-देखता है जबकि प्रथम नरक का नैरयिक जघन्य आधा गाऊ तथा उत्कृष्ट चार गाऊ पर्यन्त जानता-देखता है। असुरकुमार देव जघन्य २५ योजन तथा उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप समुद्रों को जानते-देखते हैं। शेष नौ भवनपति देव जघन्य २५ योजन एवं उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते-देखते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव अपने अवधिज्ञान से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को तथा उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप समुद्रों को जानते-देखते हैं। मनुष्य भी जघन्य तो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy