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________________ उपयोग अध्ययन : आमुख ज्ञान एवं दर्शन जीव के शाश्वत गुण हैं। इन्हीं के आधार पर जीव को जड़पदार्थों से भिन्न प्रतिपादित किया जाता है। ये दोनों जीव के लक्षण हैं। ये सदैव जीव के साथ रहकर भी अपनी भिन्न विशेषताएं रखते हैं। जैन आगमों में ज्ञान और दर्शन को उपयोग कहा गया है, किन्तु साथ ही यह भी प्रतिपादित किया गया है कि एक समय में एक ही उपयोग होता है। उपयोग के रूप में ज्ञान एवं दर्शन युगपद्भावी नहीं हैं। एक अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही इन उपयोगों में परिवर्तन होता रहता है। गुण के रूप में ज्ञान एवं दर्शन युगपद्भावी हैं, एक साथ रहते हैं किन्तु उपयोग के रूप में ये युगपद्भावी नहीं हैं, क्रमभावी हैं। यही गुण एवं उपयोग में भेद है। उपयोग के दो भेद किए जाते हैं-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। साकारोपयोग में ज्ञान एवं अनाकारोपयोग में दर्शन का अन्तर्भाव होता है। साकारोपयोग के पाँच ज्ञानों एवं तीन अज्ञानों के आधार पर आठ भेद किए जाते हैं, यथा-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुत अज्ञान, और विभंगज्ञान। अनाकारोपयोग के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवल दर्शन। इस प्रकार साकारोपयोग ज्ञानात्मक एवं अनाकारोपयोग दर्शनात्मक होता है। ज्ञान साकार उपयोग होता है, किन्तु दर्शन अनाकार उपयोग। दोनों प्रकार के उपयोग वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित होते हैं तथा अगुरुलघु होते हैं। निर्वृत्ति या निष्पत्ति के आधार पर भी उपयोगनिवृत्ति के साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग दो भेद घटित होते हैं। चौबीस दण्डकों में से कोई भी जीव किसी भी समय उपयोग रहित नहीं होता तथापि सामान्यरूप से विचार किया जाए तो प्रत्येक जीव में दो उपयोग होते हैं-साकार एवं अनाकार। कभी साकार उपयोग होता है तो कभी अनाकार उपयोग। जिस जीव में जो ज्ञान या अज्ञान पाया जाता है, उसमें वही साकारोपयोग होता है तथा जो दर्शन पाया जाता है, उसमें वही अनाकारोपयोग होता है। इस दृष्टि से पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों में मतिअज्ञान एवं श्रुतअज्ञान ये दो साकारोपयोग एवं अचक्षुदर्शन नामक एक अनाकार उपयोग होता है। द्वीन्द्रिय एवं त्रीन्द्रिय जीवों में भी एकेन्द्रिय जीवों की भांति अनाकार उपयोग तो एक अचक्षुदर्शन ही होता है, किन्तु साकारोपयोग दो और बढ़ जाते हैं। बढ़ने वाले साकारोपयोग हैं-आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान। ये दोनों साकारोपयोग उनमें सम्यग्दृष्टि पाए जाने से उपलब्ध होते हैं। चतुरिन्द्रिय जीव में त्रीन्द्रिय की भांति चार ही साकारोपयोग होते हैंआभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान। अनाकारोपयोग दो होते हैं-चक्षुदर्शन एवं अचक्षुदर्शन। चतुरिन्द्रिय में चक्षु बढ़ जाने से उसमें चक्षुदर्शन पाया जाता है। नैरयिक जीवों, देवों एवं पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में छह साकारोपयोग एवं तीन अनाकारोपयोग होते हैं। उनमें अवधिदर्शन नामक एक अनाकारोपयोग तथा अवधिज्ञान एवं विभंगज्ञान नामक दो साकारोपयोग, चतुरिन्द्रिय से अधिक पाए जाते हैं। मनुष्यों में साकारोपयोग के समस्त आठ भेद तथा अनाकारोपयोग के समस्त चार भेद माने जाते हैं। समस्त प्राणियों में मनुष्य सबसे अधिक विकसित जीव है। केवलज्ञान जैसा साकारोपयोग एवं केवलदर्शन जैसा अनाकारोपयोग उसी में उपलब्ध होता है। प्रसंगवश इस अध्ययन में इस चर्चा का भी समावेश हुआ है कि केवलज्ञानियों में दो उपयोग एक साथ नहीं पाए जाते हैं। वे केवलज्ञान नामक साकारोपयोग एवं केवलदर्शन नामक अनाकारोपयोग से युक्त होते हैं किन्तु एक समय में इनमें से एक ही उपयोग पाया जाता है। गुण की दृष्टि से उनमें केवलज्ञान एवं केवलदर्शन दोनों एक साथ रहते हैं। केवलज्ञानी जिस समय रत्नप्रभा पृथ्वी आदि को आकारों, हेतुओं, उपमाओं, दृष्टान्तों, वर्णों, संस्थानों, प्रमाणों और उपकरणों से जानते हैं उस समय देखते नहीं हैं तथा जिस समय देखते हैं उस समय जानते नहीं हैं। जो साकार है वह ज्ञान है तथा जो अनाकार है वह दर्शन है। साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग में प्रत्येक की कायस्थिति (स्थितिकाल) जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इनका परस्पर अन्तरकाल भी अत्तर्मुहूर्त ही है। एक अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर ये क्रमशः बदलते रहते हैं। अल्पबहुत्व की दृष्टि से अनाकारोपयोग युक्त जीव अल्प हैं तथा साकारोपयोगयुक्त जीव उनसे संख्यातगुणे हैं। इस अध्ययन में दर्शनोपयोग का विशेष निरूपण हुआ है। चार गतियों में कौन-सा जीव किस दर्शनोपयोग से युक्त है इसका विस्तृत निरूपण हुआ है। इसमें सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि जीवों एवं सम्मूर्छिम जीवों के दर्शनोपयोग की विशेष चर्चा है। तदनुसार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, बादर पृथ्वीकायिक आदि जीवों में भी सामान्य एकेन्द्रिय जीवों की भाँति एक अचक्षुदर्शन उपयोग रहता है। सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों में चक्षुदर्शन एवं अचक्षुदर्शन ये दो दर्शनोपयोग होते हैं जबकि सम्मूर्छिम मनुष्यों में मात्र अचक्षुदर्शन होता है, चक्षुदर्शन उपयोग नहीं होता। दर्शनगुण से सम्पन्न चक्षुदर्शनी आदि जीवों की कायस्थिति, अन्तरकाल एवं अल्पबहुत्व पर भी इस अध्ययन में विचार हुआ है। उसके अनुसार चक्षुदर्शनी जीव चक्षुदर्शनी के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक रहता है। अचक्षुदर्शनी की यह कायस्थिति दो प्रकार की होती है-१. अनादि अपर्यवसित और २. अनादि सपर्यवसित। अवधिदर्शनी की कायस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम तक होती है। केवलदर्शनी सादि अपर्यवसित होता है। अल्पबहुत्व की अपेक्षा सबसे अल्प अवधिदर्शनी हैं, उनसे चक्षुदर्शनी असंख्यातगुणे हैं, उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुणे हैं तथा उनसे अचक्षुदर्शनी अनन्तगुणे हैं। (५६३ )
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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