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________________ ५५६ द्रव्यानुयोग-(१) ४. गइपवाय परूवणं प. कइविहे णं भंते ! गइप्पवाए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते,तं जहा १. पओगगई, २. ततगई, ३. बंधणच्छेयणगई, ४.उववायगई,५.विहायगई। -पण्ण.प.१६, सु. १०८५ ५. पओगगई भेया जीव-चउवीसदंडएसु य परूवणं प. १.से किं तं पओगगई? उ. पओगगई पण्णरसविहा पण्णत्ता,तं जहा १. सच्चमणप्पओगगई जाव १५ कम्मगसरीरकायप्पओगगई। एवं जहा पओगो भणिओ तहा एसा विभाणियव्या। उ. जीवाणं भंते ! कइविहा पओगगई पण्णत्ता? उ. गोयमा ! पण्णरसविहा पण्णत्ता,तं जहा १. सच्चमणप्पओगगई जाव १५. कम्मगसरीर कायप्पओगगई। -पण्ण. प. १६, सु. १०८६-१०८७ प. दं.१.णेरइयाणं भंते ! कइविहा पओगगई पण्णत्ता? उ. गोयमा ! एक्कारसविहा पण्णत्ता,तं जहा १. सच्चमणप्पओगगई एवं उवउज्जिऊण जस्स जइविहा तस्स तइविहा भाणियव्वा जाव वेमाणियाणं। ४. गतिप्रपात की प्ररूपणा प्र. भन्ते ! गतिप्रपात कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! पाँच प्रकार का गया कहा है, यथा १. प्रयोगगति, २. ततगति, ३. बन्धनछेदनगति, ४. उपपातगति, ५. विहायोगति। ५. प्रयोगगति के भेद और जीव-चौवीसदंडकों में प्ररूपण प्र. १. प्रयोगगति कितने प्रकार की है? उ. प्रयोगगति पन्द्रह प्रकार की कही गई है, यथा १. सत्यमनः प्रयोगगति यावत् १५ कार्मणशरीरकायप्रयोगति। जिस प्रकार प्रयोग पन्द्रह प्रकार के कहे गए हैं उसी प्रकार प्रयोग गति भी पन्द्रह प्रकार की कहनी चाहिए। प्र. भन्ते ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की कही गई है? उ. गौतम ! वह पन्द्रह प्रकार की कही गई है, यथा १. सत्यमनःप्रयोगगति यावत् १५ कार्मणशरीर कायप्रयोगगति। प्र. दं.१. भन्ते ! नैरयिकों की प्रयोगगति कितने प्रकार की कही गई है? उ. गौतम ! ग्यारह प्रकार की कही गई है, यथा १. सत्यमनःप्रयोगगति आदि इस प्रकार उपयोग करके वैमानिक पर्यन्त जिसकी जितने प्रकार की गति है उसकी उतन प्रकार की गति कहनी चाहिए। प्र. भन्ते ! जीव क्या सत्यमनःप्रयोगगति वाले हैं यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति वाले हैं ? उ. गौतम ! जीव सभी प्रकार की गति वाले होते हैं सत्यमनःप्रयोगगति वाले भी होते हैं। इत्यादि पूर्ववत् कहना चाहिए। दं.१-२४ उसी प्रकार पूर्ववत् (नैरयिकों से) वैमानिकों पर्यंत ' कहना चाहिए। यह प्रयोगगति की प्ररूपणा हुई। ६. ततगति का स्वरूप प्र. २. ततगति किस प्रकार की है? उ. ततगति वह है, जिसके द्वारा जिस ग्राम यावत् सन्निवेश के लिए प्रस्थान किया हुआ व्यक्ति अभी पहुँचा नहीं है बीच मार्ग में ही हैं। यह ततगति का स्वरूप है। ७. बन्धनछेदनगति का स्वरूप प्र. ३. बन्धनछेदनगति क्या है? उ. बन्धनछेदनगति वह है, जिसके द्वारा जीव शरीर से बन्धन तोड़कर बाहर निकलता है। अथवा शरीर जीव से पृथक् होता है। यह बन्धनछेदनगति का स्वरूप है। प. जीवा णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगगई जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगई? उ. गोयमा ! जीवा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगगई वि, एवं तं चेव पुव्ववणियं भाणियव्यं, दं.१-२४ भंगा तहेव जाव वेमाणियाणं। से तं पओगगई। -पण्ण.प.१६, सु. १०८८-१०८९ ६. ततगई सरूवं प. २.से किं तं ततगई? उ. ततगई जेणं जंगामं जाव सण्णिवेसं वा संपट्ठिए असंपत्ते अंतरापहे वट्टइ। से तं ततगई। -पण्ण.प.१६,सु.१०९० ७. बंधणछेयणगई सलव प. ३.से किं तं बंधणच्छेयणगई? उ. बंधणच्छेयणगई जेणं जीवो वा सरीराओ, सरीरं वा जीवाओ। से तं बंधणच्छेयणगई। -पण्ण. प.१६,सु.१०९१
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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