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________________ योग अध्ययन : आमुख योग का सामान्य अर्थ है मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का जीव के साथ जुड़ना। मन, वचन एवं काया के कारण जीव के प्रदेशों में जो स्पन्दन या हलचल होती है उसे भी योग कहा गया है। जीव तेरहवे गुणस्थान तक योगयुक्त रहता है। चौदहवे गुणस्थान में पहुँचने पर वह अयोगी हो जाता है। सिद्ध भी इस दृष्टि से अयोगी है। योगदर्शन में योग शब्द का भिन्न अर्थ में प्रयोग हुआ है। वहां पर चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है, यथा- 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।' भगवद्गीता में कर्म के कौशल को योग कहा गया है-योगः कर्मसु कौशलम् । योग एक प्रकार से समाधि के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। योगदर्शन में वर्णित अष्टांग योग के अन्तर्गत 'समाधि' योग का आठवां अंग है। जैनदर्शन में प्रयुक्त योग शब्द समाधि के लिए नहीं है। वह तो यहां संसार की ओर ले जाने वाले कर्मबंध के हेतुओं में गिना जाता है। प्रकृतिबंध एवं प्रदेशबंध में योग को निमित्त माना गया है। स्थितिबंध एवं अनुभाग बंध में कषाय निमित्त होता है। वह योग मुख्यतः तीन प्रकार का है- १. मनोयोग, २. वचनयोग, ३. काययोग । मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें मन रूप में परिणत करना तथा चिन्तन-मनन करना मनोयोग है। भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर वस्तु स्वरूप का कथन करना, बोलना वचनयोग है। औदारिक आदि शरीरों से हलन, चलन, संक्रमण आदि क्रियाएं करना काययोग है। इन तीनों योगों के उपभेदों की गणना करने पर योग के पन्द्रह भेद भी होते हैं, उनमें चार भेद मनोयोग के, चार भेद वचनयोग के तथा सात भेद काययोग के गिने जाते हैं। मनोयोग के चार भेद है-सत्य मनोयोग, मृषा मनोयोग, सत्यमृषा मनोयोग और असत्यामृषा मनोयोग। वचनयोग के भी सत्य, मृषा, सत्यमृषा एवं असत्यामृषा ये चार भेद हैं। काययोग सात प्रकार का है - 9. औदारिकशरीर- काययोग २. औदारिकमिश्रशरीर काययोग, ३. वैकियशरीर काययोग, ४ चैक्रिय-मिश्र शरीर काययोग, ५. आहारक शरीर काययोग, ६. आहारकमिश्र शरीर काययोग और ७. कार्मण शरीर काययोग। मनोयोग एवं वचनयोग के जो चार-चार भेद बने हैं वे सत्य एवं मृषा के दो मूल भेदों के आधार पर बने हैं। सत्य चार प्रकार का माना गया हैजिसमें कायऋजुता, भाषाऋजुता, भावऋजुता एवं अविसंवादना योग का ग्रहण होता है। इसके विपरीत मृषा के चार प्रकारों में इनकी अनृजुता अर्थात् कुटिलता का ग्रहण होता है। चार गतियों के जीवों में नैरयिकों, देवों, गर्भजमनुष्यों और गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों में तीनों योग पाए जाते हैं। कोई भी जीव इनमें तीन योगों से रहित नहीं होता। पृथ्वीकाय आदि समस्त एकेन्द्रिय जीव एक मात्र काययोग से युक्त होते हैं। हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं सम्मूर्च्छिम तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में काययोग और वचनयोग ये दो योग उपलब्ध होते हैं। उनमें मनोयोग नहीं होता। सम्मूर्च्छिम मनुष्यों में एकेन्द्रिय जीवों की भाँति एक मात्र काययोग होता है। योग तीन प्रकार के हैं, इसलिए योगनिवृत्ति एवं योगकरण भी तीन-तीन प्रकार के हैं। इनमें भी मन, वचन एवं काया के तीन भेदों की ही गणना होती है। जिस जीव में जितने योग पाए जाते हैं, उसमें उतनी योगनिवृत्ति एवं उतने ही योगकरण उपलब्ध होते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में मन, वचन एवं काया के विषय में विशेष निरूपण हुआ है। तदनुसार मन आत्मा से भिन्न, रूपी एवं अचित्त है। वह अजीव होकर भी जीवों के होता है, अजीवों के नहीं। मन की व्याख्या भगवतीसूत्र में प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि मनन करते समय ही मन, मन कहलाता है उसके पूर्व एवं पश्चात् नहीं। मन के आगम में सत्य मन, असत्य मन, सत्यमृषा मन और असत्यामृषा मन ये चार भेद निरूपित हैं। इनके अतिरिक्त तन्मन तदन्यमन और नोअमन ये मन के तीन भेद भी मिलते हैं। वचन के भेदों का निरूपण विविध प्रकार से हुआ है। एकवचन, द्विवचन और बहुवचन के रूप में वचन शब्द संख्या के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, वहाँ उसका भाषा या वाणी अर्थ नहीं है। स्त्रीवचन, पुरुषवचन और नपुंसकवचन के रूप में वचन के जो तीन भेद प्रतिपादित हैं वे स्त्री लिंग आदि के द्वारा प्रयुक्त वचनों के द्योतक हैं। काल के आधार पर भी वचन के तीन भेद हैं-अतीत वचन, प्रत्युत्पन्न वचन और अनागतवचन । इनमें से अतीतवचन भूतकाल से, प्रत्युत्पन्न वचन वर्तमान काल से तथा अनागतवचन भविष्यत्काल से सम्बद्ध है। मन की भाँति वचन के तद्वचन, तदन्यवचन और नोअवचन भेद भी किए जाते हैं। काया को मन की भांति एकदम अजीव नहीं कहा गया। अनैकान्तिक शैली में उसे जीवरूप भी कहा गया है तथा अजीवरूप भी कहा गया है। काया कचित् आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है। यह कथंचित् रूपी भी है और अरूपी भी है। यह कथंचित् सचित्त भी है और कथंचित् अचित्त भी है। ऐसा प्रतिपादन करने का कारण संसारी जीवों में कार्मण काया का सदैव बने रहना प्रतीत होता है। काया की उपलब्धि जिस प्रकार जीवों में होती है, उसी प्रकार अजीवों में भी मानी गई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि में प्रयुक्त काय शब्द काया का ही द्योतक है। ( ५३५ )
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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