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________________ ( ५२८ - ५२८ उ. गोयमा ! आणुपुव्विं गेण्हइ,णो अणाणुपुव्विं गेण्हइ। प. २३. जाइं भंते !आणुपुव्विं गेण्हइ, ताई किं तिदिसिं गेण्हइ जाव छद्दिसिं गेण्हइ? उ. गोयमा ! णियमा छदिसिंगेण्हइ। गाहा-पुट्ठोगाढ अणंतर अणु य,तह बायरे य उड्ढमहे। आदि विसयाऽणुपुब्बिं,णियमा तह छद्दिसिं चेव॥ प. २४.जीवेणं भंते ! जाई दव्वाई भासत्ताए गेण्हइ, ताई किं संतरं गेण्हइ, निरंतरंगेण्हइ? उ. गोयमा ! संतरं पि गेण्हइ, निरंतर पि गेण्हइ। संतरंगेण्हमाणे जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जसमए अंतर कटुगेण्हइ। निरंतरंगेण्हमाणे जहण्णेणं दो समए, उक्कोसेणं असंखेज्जसमए अणुसमयं अविरहियं निरंतर गेण्हइ। __-पण्ण. प.११, सु. ८७७-८७८ १६. चउवीसदंडएहिं ठिय भासा दव्याणं गहण परूवणंप. णेरइएणं भंते !जाइं दव्वाइं भासत्ताए गेण्हइ, ताई किं ठियाइं गेण्हइ, अठियाइं गेण्हइ ? द्रव्यानुयोग-(१) उ. गौतम ! आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी से ग्रहण नहीं करता है। प्र. २३. भन्ते ! आनुपूर्वी से ग्रहण करता है तो क्या तीन दिशाओं से ग्रहण करता है यावत् छहों दिशाओं से ग्रहण करता है? उ. गौतम ! नियमतः छहों दिशाओं से ग्रहण करता है। गाथार्थ-स्पृष्ट, अवगाढ, अनन्तरावगाढ़, अणु तथा स्थूल, ऊर्ध्व, अधः, आदि, स्वविषयक, अविषयक, आनुपूर्वी तथा छह दिशाओं से निश्चित रूप से ग्रहण करता है। प्र. २४. भन्ते ! जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उन्हें सान्तर ग्रहण करता है या निरन्तर ग्रहण करता है? उ. गौतम ! सान्तर भी ग्रहण करता है, निरन्तर भी ग्रहण करता है, सान्तर ग्रहण करता हुआ जघन्य एक समय में ग्रहण करता है, उत्कृष्ट असंख्यात समय का अन्तर करके ग्रहण करता है, निरन्तर ग्रहण करता हुआ जघन्य दो समय तक ग्रहण करता है, उत्कृष्ट असंख्यात समय तक प्रति समय निरन्तर ग्रहण करता है। १६. चौबीस दण्डकों द्वारा स्थित भाषा द्रव्यों के ग्रहण का प्ररूपणप्र. भन्ते ! नैरयिक जिन द्रव्यों को भाषा रूप में ग्रहण करता है, तो क्या स्थितों को ग्रहण करता है या अस्थितों को ग्रहण करता है? उ. गौतम ! जीव के विषय में जैसा कहा गया है, वैसा ही अल्पबहुत्व पर्यन्त नैरयिक के विषय में भी कहना चाहिए। इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भन्ते ! अनेक जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं, तो क्या स्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं या अस्थित को ग्रहण करते हैं? उ. गौतम ! जिस प्रकार एकत्व (एकवचन) रूप में कथन किया गया है उसी प्रकार बहुवचन के रूप में भी वैमानिकों पर्यन्त कथन करना चाहिए। प्र. भन्ते ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है तो क्या स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है? उ. गौतम ! जैसे जीव विषयक औधिक आलापक कहे हैं, वैसे ही यह आलापक कहना चाहिए। विशेष-विकलेन्द्रियों के विषय में पृच्छा नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार मृषाभाषा के द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार सत्यामृषा भाषा के द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार असत्यामृषा भासा के द्रव्यों को ग्रहण करता है। उ. गोयमा ! एवं चेव जहा जीवे वत्तव्वया भणिया तहा णेरइयस्सावि जावं अप्पाबहुयं। एवं एगिंदियवज्जो दंडओ जाव वेमाणिया। प. जीवा णं भंते ! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गेहंति, ताई किं ठियाइं गेहंति,अठियाई गेण्हंति? उ. गोयमा ! एवं चेव पुहुत्तेण विणेयव्वं जाव वेमाणिया। प. जीवेणं भंते !जाई दव्वाई सच्चभासत्ताए गेहंति, ताई किं ठियाई गेण्हइ, अठियाई गेण्हइ ? उ. गोयमा ! जहा ओहियदंडओ तहा एसो वि। णवर-विगलेंदिया ण पुच्छिज्जंति। एवं मोसभासाए वि एवं सच्चामोसमासाए वि। एवं असच्चामोसमासाए वि।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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