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________________ आदि को भी इसी वर्ग के अन्तर्गत माना है। वर्तमान युग में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा जो चित्र आदि का सम्प्रेषण किया जाता है उसे भी हम इसी वर्ग के अन्तर्गत रख सकते हैं। ५. सूक्ष्म-जो स्कंध या पुद्गल इन्द्रिय के माध्यम से ग्रहण नहीं किये जा सकते हों वे इस वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। जैनाचार्यों के कर्मवर्गणा, मनोवर्गणा जो-जो जीवों के बंधन का कारण है, को इसी वर्ग में माना है। ६. अति सूक्ष्म-द्वयणुक आदि अत्यन्त छोटे-स्कंध अति सूक्ष्म माने गये हैं। स्कंध के निर्माण की प्रक्रिया स्कंध की रचना दो प्रकार से होती है-एक ओर बड़े-बड़े स्कंधों के टूटने से छोटे-छोटे स्कंधों के संयोग से नवीन स्कंध बनते हैं तो दूसरी ओर परमाणुओं में निहित स्वाभाविक स्निग्धता और रुक्षता के कारण परस्पर बंध होता है, जिससे स्कंधों की रचना होती है। इसलिए यह कहा गया है कि संघात और भेद से स्कंध की रचना होती है। संघात का तात्पर्य एकत्रित होना और भेद का तात्पर्य टूटना है। किस प्रकार के परमाणुओं के परस्पर मिलने से स्कंध आदि की रचना होती है, इस प्रश्न पर जैनाचार्यों ने विस्तृत चर्चा की है किन्तु विस्तारभय से उसे यहाँ वर्णित करना संभव नहीं है। इस हेतु इच्छुक पाठक तत्त्वार्थ सूत्र के पाँचवें अध्याय की टीकाओं का अवलोकन करें। जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने अंधकार, प्रकाश, छाया, शब्द, गर्मी आदि को पुद्गल द्रव्य का ही पर्याय माना है। इस दृष्टि से जैन दर्शन का पुद्गल विचार आधुनिक विज्ञान के बहुत अधिक निकट है। जैन धर्म की ही ऐसी अनेक मान्यतायें हैं, जो कुछ वर्षों तक अवैज्ञानिक व पूर्णतः काल्पनिक लगती थीं, किन्तु आज विज्ञान से प्रमाणित हो रही हैं। उदाहरण के रूप में प्रकाश, अन्धकार, ताप, छाया और शब्द आदि पौद्गलिक हैं। जैन आगमों की इस मान्यता पर कोई विश्वास नहीं करता था, किन्तु आज उनकी पौद्गलिकता सिद्ध हो चुकी है। जैन आगमों का यह कथन है कि शब्द न केवल पौद्गलिक है, अपितु वह ध्वनि रूप में उच्चरित होकर लोकान्त तक की यात्रा करता है, इस तथ्य को कल तक कोई भी स्वीकार नहीं करता था, किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक खोजों ने अब इस तथ्य को सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक ध्वनि उच्चरित होने के बाद अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देती है और उसकी यह यात्रा, चाहे अत्यन्त क्षीण रूप में ही क्यों न हो, लोकान्त तक होती है। जैनों की केवलज्ञान सम्बन्धी यह अवधारणा कि केवली या सर्वज्ञ समस्त लोक के पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष रूप से जानता है अथवा अवधिज्ञान सम्बन्धी यह अवधारणा है कि अवधिज्ञानी चर्म-चक्षु के द्वारा गृहीत नहीं हो रहे दूरस्थ विषयों का सीधा प्रत्यक्षीकरण कर लेता है-कुछ वर्षों पूर्व तक यह सब कपोलकल्पना ही लगती थी, किन्तु आज जब टेलीविजन का आविष्कार हो चुका है अब यह बात बहुत आश्चर्यजनक नहीं रही है। जिस प्रकार से ध्वनि की यात्रा होती है उसी प्रकार से प्रत्येक भौतिक पिण्ड से प्रकाश-किरणें परावर्तित होती हैं और वे भी ध्वनि के समान ही लोक में अपनी यात्रा करती हैं तथा प्रत्येक वस्तु या घटना का चित्र विश्व में संप्रेषित कर देती हैं। आज यदि मानव मस्तिष्क में टेलीविजन सेट की ही तरह चित्रों को ग्रहण करने का सामर्थ्य विकसित हो जाये, तो दूरस्थ पदार्थों एवं घटनाओं के हस्तामलकवत् ज्ञान में कोई बाधा नहीं रहेगी, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ से प्रकाश व छाया के रूप में जो किरणें परावर्तित हो रही हैं, वे तो हम सबके पास पहुँच ही रही हैं। आज यदि हमारे चैतन्य मस्तिष्क की ग्रहण शक्ति विकसित हो जाय तो दूरस्थ विषयों का ज्ञान असम्भव नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन धार्मिक कहे जाने वाले साहित्य में भी बहुत कुछ ऐसा है, जो या तो आज विज्ञान सम्मत सिद्ध हो चुका है अथवा जिसके विज्ञान सम्मत सिद्ध होने की सम्भावना अभी पूर्णतः निरस्त नहीं हुई है। ___ अनेक आगम वचन या सूत्र ऐसे हैं, जो कल तक अवैज्ञानिक प्रतीत होते थे, वे आज वैज्ञानिक सिद्ध हो रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं, इन सूत्रों का वैज्ञानिक ज्ञान उनके प्रकाश में है जो व्याख्या की गयी, वह अधिक समीचीन प्रतीत होती है। उदाहरण के रूप में परमाणुओं के पारस्परिक बन्धन से स्कन्ध के निर्माण की प्रक्रिया को समझाने हेतु तत्त्वार्थ सूत्र के पाँचवें अध्याय का एक सूत्र आता है-स्निग्धरुक्षत्वात् बन्धः। इसमें स्निग्ध और रुक्ष परमाणुओं के एक-दूसरे से जुड़कर स्कन्ध बनाने की बात कही गयी है। सामान्य रूप से इसकी व्याख्या यह कहकर ही की जाती थी कि स्निग्ध (चिकने) एवं रुक्ष (खुरदुरे) परमाणुओं में बन्ध होता है, किन्तु आज जब हम इस सूत्र की वैज्ञानिक व्याख्या करते हैं कि स्निग्ध अर्थात् धनात्मक विद्युत् से आवेशित एवं रुक्ष अर्थात् ऋणात्मक विद्युत् से आवेशित सूक्ष्म-कण जैन दर्शन की भाषा में परमाणु परस्पर मिलकर स्कन्ध (Molecule) का निर्माण करते हों तो तत्त्वार्थ सूत्र का यह सूत्र अधिक विज्ञान सम्मत प्रतीत होता है। . जहाँ तक भौतिक तत्त्व के अस्तित्व एवं स्वरूप का प्रश्न है वैज्ञानिकों एवं जैन आचार्यों में अधिक मतभेद नहीं है। परमाणु या पुद्गल कणों में जिस अनन्त शक्ति का निर्देश जैन आचार्यों ने किया था वह अब आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषणों से सिद्ध हो रहा है। आधुनिक वैज्ञानिक इस तथ्य को सिद्ध कर चुके हैं कि एक परमाणु का विस्फोट भी कितनी अधिक शक्ति का सृजन कर सकता है। वैसे भी भौतिक पिण्ड या पुद्गल की अवधारणा ऐसी है जिस पर वैज्ञानिकों एवं जैन विचारकों में कोई. अधिक मतभेद नहीं देखा जाता। परमाणुओं के द्वारा स्कन्ध (Molecule) की रचना का जैन सिद्धान्त कितना वैज्ञानिक है, इसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। विज्ञान जिसे परमाणु कहता था, वह अब टूट चुका है। वास्तविकता तो यह है कि विज्ञान ने जिसे परमाणु मान लिया था, वह परमाणु था ही नहीं, वह तो स्कन्ध ही था। क्योंकि जैनों की परमाणु की परिभाषा यह है कि जिसका विभाजन नहीं हो सके, ऐसा भौतिक तत्त्व परमाणु है। इस प्रकार आज हम देखते हैं कि विज्ञान का तथाकथित परमाणु खण्डित हो चुका है, जबकि जैन दर्शन का परमाणु अभी वैज्ञानिकों की पकड़ में आ ही नहीं पाया है। वस्तुतः जैन दर्शन में जिसे परमाणु कहा जाता है उसे आधुनिक वैज्ञानिकों ने क्वार्क नाम दिया है और वे आज भी उसकी खोज में लगे हुए (४७)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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