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________________ को भी अपने में समाहित करने के कारण आकाश का विस्तार क्षेत्र लोक के बाहर भी मानना आवश्यक है। यही कारण है कि जैन आचार्य आकाश के दो विभाग करते हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश। विश्व में जो रिक्त स्थान है वह लोकाकाश है और इस विश्व से बाहर जो रिक्त स्थान है वह अलोकाकाश है। इस प्रकार जहाँ धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य असंख्य प्रदेशी माने गए हैं वहाँ आकाश को अनन्त प्रदेशी माना गया है। लोक की कोई सीमा हो सकती है किन्तु अलोक की कोई सीमा नहीं है-वह अनन्त है। चूँकि आकाश लोक और अलोक दोनों में है इसलिए वह अनन्त प्रदेशी है। संख्या की दृष्टि से आकाश को भी एक और अखण्ड द्रव्य माना गया है। उसके देश-प्रदेश आदि की कल्पना भी केवल वैचारिक स्तर तक ही सम्भव है। वस्तुतः आकाश में किसी प्रकार का विभाजन कर पाना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि उसे अखण्ड द्रव्य कहा जाता है। जैन आचार्यों की अवधारणा है कि जिन्हें हम सामान्यतया ठोस पिण्ड समझते हैं उनमें भी आकाश अर्थात् रिक्त स्थान होता है। एक पुद्गल परमाणु में भी दूसरे अनन्त पुद्गल परमाणुओं को अपने में समाविष्ट करने की शक्ति तभी सम्भव हो सकती है जबकि उनमें विपुल मात्रा में रिक्त स्थान या आकाश हो। अतः मूर्त द्रव्यों में भी आकाश तो निहित ही रहता है। लकड़ी में जब हम कील ठोंकते हैं तो वह वस्तुतः उसमें निहित रिक्त स्थान में ही समाहित होती है। इसका तात्पर्य है कि उसमें भी आकाश है। परम्परागत उदाहरण के रूप में यह कहा जाता है कि दूध या जल के भरे हुए ग्लास में यदि धीरे-धीरे शक्कर या नमक डाला जाय तो वह उसमें समाविष्ट हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि दूध या जल से भरे हुए ग्लास में भी रिक्त स्थान अर्थात् आकाश था। वैज्ञानिकों ने भी यह मान लिया है कि प्रत्येक परमाणु में पर्याप्त रूप से रिक्त स्थान होता है। अतः आकाश को लोकालोकव्यापी, एक और अखण्ड द्रव्य मानने में कोई बाधा नहीं आती है। पुद्गली पुद्गल को भी अस्तिकाय द्रव्य माना गया है। यह मूर्त और अचेतन द्रव्य है। पुद्गल का लक्षण शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि माना जाता है। जैन आचार्यों ने हल्कापन, भारीपन, प्रकाश, अंधकार, छाया, आतप आदि को भी पुद्गल का लक्षण माना है। जहाँ धर्म, अधर्म और आकाश एक द्रव्य माने गये हैं वहाँ पुद्गल अनेक द्रव्य हैं। जैन आचार्यों ने प्रत्येक परमाणु को एक स्वतन्त्र द्रव्य या इकाई माना है। वस्तुतः पुद्गल द्रव्य समस्त दृश्य जगत् का मूलभूत घटक है। यह दृश्य जगत् पुद्गल द्रव्य के ही विभिन्न संयोगों का विस्तार है। अनेक पुद्गल परमाणु मिलकर स्कंध की रचना करते हैं और इन स्कंधों से ही मिलकर दृश्य जगत् की सभी वस्तुयें निर्मित होती हैं। नवीन स्कंधों के निर्माण और पूर्व निर्मित स्कन्धों के संगठन और विघटन की प्रक्रिया के माध्यम से ही दृश्य जगत् में परिवर्तन घटित होते हैं और विभिन्न वस्तुएँ और पदार्थ अस्तित्व में आते हैं। जैन आचार्यों ने पुद्गल को स्कंध और परमाणु इन दो रूपों में विवेचित किया है। विभिन्न परमाणुओं के संयोग से ही स्कंध बनते हैं। फिर भी इतना स्पष्ट है कि पुद्गल द्रव्य का अंतिम घटक तो परमाणु ही है। प्रत्येक परमाणु में स्वभाव से एक रस, एक रूप, एक गंध और शीत-उष्ण या स्निग्ध-रुक्ष में से कोई दो स्पर्श पाये जाते है। जैन आगमों में वर्ण पाँच माने गये हैं-लाल, पीला, नीला, सफेद और काला; गंध दो हैं-सुगन्ध और दुर्गन्ध; रस पाँच हैं-तिक्त, कटु, कसैला, खट्टा और मीठा और इसी प्रकार स्पर्श आठ माने गये हैं-शीत और उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष, मृदु और कर्कश तथा हल्का और भारी। ज्ञातव्य है कि परमाणुओं में मृदु, कर्कश, हल्का और भारी चार स्पर्श नहीं होते हैं। ये चार स्पर्श तभी संभव होते हैं जब परमाणुओं से स्कंधों की रचना होती है और तभी उनमें मृदु, कठोर, हल्के और भारी गुण भी प्रकट हो जाते हैं। परमाणु एक प्रदेशी होता है जबकि स्कंध में दो या दो से अधिक असंख्य प्रदेश भी हो सकते हैं। स्कंध, स्कंध-देश, स्कंध-प्रदेश और परमाणु ये चार पुद्गल द्रव्य के विभाग हैं। इनमें परमाणु निरवयव है। आगम में उसे आदि, मध्य और अन्त से रहित बताया गया है जबकि स्कंध में आदि और अन्त होते हैं। न केवल भौतिक वस्तुएँ अपितु शरीर, इन्द्रियाँ और मन भी स्कंधों का ही खेल है। स्कंधों के प्रकार जैन दर्शन में स्कंध के निम्न ६ प्रकार माने गये हैं १. स्थूल-स्थूल-इस वर्ग के अन्तर्गत विश्व के समस्त ठोस पदार्थ आते हैं। इस वर्ग के स्कंधों की विशेषता यह है कि वे छिन्न-भिन्न होने पर मिलने में असमर्थ होते हैं, जैसे-पत्थर। २. स्थूल-जो स्कंध छिन्न-भिन्न होने पर स्वयं आपस में मिल जाते हैं वे स्थूल स्कंध कहे जाते हैं। इसके अन्तर्गत विश्व के तरल द्रव्य आते हैं, जैसे-पानी, तेल आदि। ३. स्थूल-सूक्ष्म-जो पुद्गल स्कंध छिन्न-भिन्न नहीं किये जा सकते हों अथवा जिनका ग्रहण या लाना-ले जाना संभव नहीं हो किन्तु जो चक्षु इन्द्रिय के अनुभूति के विषय हों वे स्थूल-सूक्ष्म या बादर-सूक्ष्म कहे जाते हैं, जैसे-प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि। ४. सूक्ष्म-स्थूल-जो विषय दिखाई नहीं देते हैं किन्तु हमारी ऐन्द्रिक अनुभूति के विषय बनते हैं, जैसे-सुगन्ध, शब्द आदि। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विद्युत् धारा का प्रवाह और अदृश्य किन्तु अनुभूत गैस भी इस वर्ग के अन्तर्गत आती है। जैन आचार्यों ने ध्वनि तरंग १. पुद्गल द्रव्य की विस्तृत विवेचना हेतु देखें Concept of Matter in Jain Philosophy-Dr. J. C. Sikadar, P. V. Research Institute, Varanasi (४६)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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