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________________ ४५४ उ. गोयमा ! णो इणढे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा? उ. हंता, गोयमा ! वीइवएज्जा। प. सेणं भंते ! तत्थ झियाएज्जा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे,णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा पुक्खलसंवट्टगस्स महामेहस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा? उ. हंता,गोयमा ! वीइवएज्जा। प. सेणं भंते ! तत्थ उल्ले सिया? उ. गोयमा ! णो इणढे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। द्रव्यानुयोग-(१)) उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उस पर शस्त्र संक्रमण नहीं करता। प्र. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार अग्निकाय के बीच में से होकर निकल सकता है? उ. हाँ, गौतम ! वह निकल सकता है। प्र. भन्ते ! क्या वह वहाँ जलता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उस पर शस्त्र संक्रमण नहीं करता। प्र. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार पुष्कर-संवर्तक महामेद्य के मध्य प्रवेश कर सकता है? उ. हाँ, गौतम ! वह प्रवेश कर सकता है। प्र. भन्ते ! क्या वह वहाँ पर गीला होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उस पर शस्त्र संक्रमण नहीं करता। प्र. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार गंगा-सिन्धु नदियों के प्रतिस्रोत में से होकर निकल सकता है? उ. हाँ, गौतम ! वह निकल सकता है। प्र. भन्ते ! क्या वह विनष्ट हो जाता है उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उस पर शस्त्र संक्रमण नहीं करता। प्र. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार उदकावर्त में या उदकबिन्दु में प्रवेश कर सकता है? उ. हाँ, गौतम ! वह प्रवेश कर सकता है। प्र. भन्ते ! क्या वह परिताप को प्राप्त होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उस पर शस्त्र संक्रमण नहीं करता। प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा गंगाए महाणदीए पडिसोयं ____हव्वमागच्छेज्जा? उ. हता, गोयमा ! हव्वमागच्छेज्जा। प. से णं भंते ! तत्थ विणिहायमावज्जेज्जा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा उदगावत्तं वा उदगबिंदु वा ओगाहेज्जा? उ. हता, गोयमा ! ओगाहेज्जा। प. से णं भंते ! तत्थ परियावज्जेज्जा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। -विया. स. १८ उ.१० सु.२-३ १८. पंचविहदेवाणं विकुव्वणा-सत्तिप. १. भवियदव्वदेवा णं भंते ! किं एगत्तं पि पभू विउव्वित्तए, पुहत्तं पिपभू विउव्वित्तए? उ. गोयमा ! एगत्तं पिपभू विउव्वित्तए, पुहत्तं पिपभू विउव्वित्तए। एगत्तं विउव्वमाणे एगिदियरूवं वा जाव पंचेंदियरूवं वा, पुहत्तं विउव्वमाणे एगिंदियरूवाणि वा जाव पंचेंदियरूवाणि वा। ताई संखेज्जाणिवा,असंखेज्जाणिवा, संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा, सरिसाणि वा असरिसाणि वा विउव्वंति, विउव्वित्ता तओ पच्छा जहिच्छियाई कज्जाई करेंति। एवं २. नरदेवा वि, ३.धम्मदेवा वि। १८. पांच प्रकार के देवों की विकुर्वणा शक्तिप्र. १. भन्ते ! क्या भव्य द्रव्य देव एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है या अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है? उ. गौतम ! वह एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है और अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में भी समर्थ हैं। एक रूप की विकुर्वणा करता हुआ वह एक एकेन्द्रिय रूप . यावत् पंचेन्द्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। अनेक रूपों की विकुर्वणा करता हुआ अनेक एकेन्द्रिय रूपों यावत् अनेक पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा करता है। वे रूप संख्येय या असंख्येय, सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध, अथवा सदृश या असदृश विकुर्वित किए जाते हैं। विकुर्वणा करने के बाद वे अपना यथेष्ट कार्य करते हैं। इसी प्रकार २. नरदेव और ३. धर्मदेव की विकुर्वणा के लिए भी कहना चाहिए। प्र. ४. भन्ते ! देवाधिदेव क्या एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है या अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? प. ४. देवाहिदेवा णं भंते ! किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए, पुहत्तं पिपभू विउव्वित्तए?
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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