SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 559
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । ४५२ द्रव्यानुयोग-(१) अमायी णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अमायी अनगार यदि आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल अस्थि तस्स आराहणा। -विया. स.३, उ.४, सु.१९ करता है तो उसके आराधना होती है। प. से भंते ! किं मायी विकुब्वइ ? अमायी विकुव्वइ ? प्र. भन्ते ! क्या विकुर्वणा मायी करता है या अमायी करता है? उ. गोयमा !मायी विकुब्वइ,णो अमायी विकुव्वइ । उ. गौतम ! मायी विकुर्वणा करता है, अमायी विकुर्वणा नहीं -विया. स. १३ उ.९ सु. २६ करता है। १४. माइस्स विकुव्वणा करणं उप्पत्तिय परूवणं १४. मायी का विकुर्वणा करना और उत्पत्ति का प्ररूपणप. से भंते ! किं मायी विकुब्वइ? अमायी विकुब्वइ? प्र. भन्ते ! क्या मायी अनगार विकुर्वणा करता है या अमायी ___अनगार विकुर्वणा करता है? उ. गोयमा ! मायी विकुव्वइ, णो अमायी विकुव्बइ। उ. गौतम ! मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायी अनगार विकुर्वणा नहीं करता है। माई णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ मायी अनगार उस प्रकार की विकुर्वणा करने के पश्चात् उस अण्णयरेसु आभिओगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना ही काल करता उववज्जइ। है तो वह मृत्यु पाकर आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है। अमाई णं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिक्कंते कालं करेइ किन्तु अमायी अनगार उस प्रकार की विकुर्वणा करने के अण्णयरेसु अणाभिओगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए पश्चात् पश्चात्तापपूर्वक उक्त प्रमाद रूप दोष स्थान का उववज्जइ। -विया.स.३, उ.५, सु.१५-१६ आलोचन प्रतिक्रमण करके काल करता है तो वह मर कर अनाभियोगिक देवलोकों में से किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है। १५. असंवुडाणं अणगारस्स विकुव्वणसामत्थ परूवणं १५. असंवृत अनगार की विकुर्वणा सामर्थ्य का प्ररूपणप. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता प्र. भन्ते ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए? बिना, एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है? उ. गोयमा !णो इणठे समठे। उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता प्र. भन्ते ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए? करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? उ. हंता,गोयमा ! पभू। उ. हाँ, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ है। प. से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ? प्र. भन्ते ! वह असंवृत अनगार यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ ? या वहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ ? अथवा अन्यत्र रहे पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है? उ. गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, उ. गौतम ! वह यहां रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ, किन्तु न तो वहां रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, नो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ। और न ही अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है। एवं २.एगवण्णं अणेगरूवं, ३. अणेगवणं एगरूवं, ४. इस प्रकार २.एकवर्ण अनेकरूप, ३. अनेक वर्ण एक रूप,४. अणेगवण्णं अणेगरूवं-चउभंगो। अनेक वर्ण अनेक रूप; यों चौभंगी का कथन किया गया है। प. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता प्र. भन्ते ! असंवृत अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिनापभू कालगं पोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए? काले पुद्गलों को नीले पुद्गलों के रूप में परिणत करने में समर्थ है ? १. विया.स.१३,उ.९,सु.२७ २. (क) विया.स. ३, उ.५, सु.१५(१) (ख) विया.स.३, उ.४, सु.१९
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy