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________________ ४५० एवं दहओपल्हत्थियं पि। -विया.स.३, उ.५, सु.१० . द्रव्यानुयोग-(१) इसी तरह दोनों तरफ पल्हथी लगाने वाले पुरुष के समान रूप-विकुर्वणा के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। १०. भावितात्मा अनगार द्वारा पर्यकासन करके बैठे हुए रूप के विकुर्वण का प्ररूपणप्र. जैसे कोई पुरुष, एक तरफ पर्यकासन करके बैठे, १०. भावियप्पमणगारंपडुच्च पलियंकरूवविउव्वण परूवणं प. से जहानामए केइ पुरिसे एगओपलियंक काउं चिट्ठेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा एगओ पलियंक किच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? उ. गोयमा ! तं चेव जाव नो विकुव्विंसु वा, विकुव्वंति वा, विकुव्विस्संति वा। एवं दुहओपलियंकं पि। -विया. स.३, उ.५, सु.११ ११. भावियप्पमणगारं आसाइ रूवअभिजुंजियत्त परूवणं प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं आसरूवं वा, हत्थिरूवं वा, सीह-वग्य-वग-दीविय-अच्छ-तरच्छ-परासररूवं वा अभिजुंजित्तए? उ. गोयमा !णो इणठे समठे। अणगारे णं एवं बाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू। प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा एगं महं आसरूवं वा अभिजुंजित्ता अणेगाई जोयणाई गमित्तए? उ. हता,गोयमा !पभू। प. से भंते ! आयड्ढीए गच्छइ, परिड्ढीए गच्छइ? उसी तरह क्या भावितात्मा अनगार भी एक पर्यंकासन से बैठे हुए उस पुरुष के समान विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है? उ. गौतम ! पहले कहे अनुसार जानना चाहिए यावत् इतने रूप कभी विकुर्वित किए नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। इसी तरह दोनों तरफ पर्यकासन करके बैठे हुए पुरुष के समान रूप-विकुर्वणा के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। ११. भावितात्मा अनगार का अश्व आदि रूपों के आभियोगित्व का प्ररूपणप्र. भन्ते ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना एक बड़े अश्व के रूप को, हाथी के रूप को, सिंह, बाघ, भेड़िए, चीते, रीछ, छोटे व्याघ्र अथवा पराशर के रूप का अभियोग करने में समर्थ है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (किन्तु) वह भावितात्मा अनगार बाहर के पूद्गलों को ग्रहण करके प्रवृत्ति करने में समर्थ है। प्र. भन्ते ! भावितात्मा अनगार, एक बड़े अश्व के रूप का अभियोजन करके अनेक योजन तक जा सकता है? उ. हाँ, गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है। प्र. भन्ते ! क्या वह आत्म-ऋद्धि से जाता है या पर-ऋद्धि से जाता है? उ. गौतम ! वह आत्मऋद्धि से जाता है, पर-ऋद्धि से नहीं जाता है। इसी प्रकार वह अपने कर्म से जाता है, परकर्म से नहीं। वह आत्म-प्रयोग से जाता है, पर-प्रयोग से नहीं। वह उच्छितोदय (ऊंचे उठे-खड़े) रूप में भी जा सकता है और पतोदय (नीचे पड़े-झुके) रूप में भी जा सकता है। प्र. भन्ते ! वह अश्वरूपधारी भावितात्मा अनगार क्या अश्व है? उ. गौतम ! वह अनगार है, अश्व नहीं है। इसी प्रकार पराशर पर्यन्त के रूपों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। १२. भावितात्मा अनगार द्वारा ग्रामादि के रूपों की विकुर्वणा का प्ररूपणप्र. भन्ते ! भावितात्मा अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना, एक बड़े ग्रामरूप की, नगररूप की यावत् सन्निवेश के रूप की विकुर्वणा कर सकता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। उ. गोयमा !आयइढीए गच्छई, नो परिड्ढीए गच्छइ। एवं आयकम्मुणा नो परकम्मुणा। आय पयोगेणं, नो परप्पयोगेणं। उस्सिओदगंवा गच्छइ, पतोदगंवा गच्छइ। प. से णं भंते ! किं अणगारे आसे? उ. गोयमा ! अणगारे णं से, नो खलु से आसे। एवं जाव परासररूवं वा। -विया. स. ३, उ. ५, सु. १२-१४ १२. भावियप्पा अणगारेण गामाइरूव विउव्वणा परूवणं . प. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एग महंगामरूवं वा नगररूवं वा जाव सन्निवेसरूवं वा विकुवित्तए? उ. गोयमा !णो इणढे समठे।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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