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________________ ४३१ शरीर अध्ययन से जहण्णेण अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण दो रयणीओ। प. अणुत्तरोववाइयदेवाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! अणुत्तरोववाइयदेवाणं एगे भवधारणिज्जए सरीरए, से जहण्णेण अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण एक्का रयणी। -अणु. उव. खेत्त. सु. ३५३-३५५ ३४. आहारगसरीरस्स ओगाहणाप. आहारगसरीरस्स णं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! जहण्णेण देसूणा रयणी, उक्कोसेण पडिपुण्णा रयणी३| -पण्ण. प.२१, सु. १५३५ ३५. तेयगसरीरस्स ओगाहणाप. जीवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयगसरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्वंभबाहल्लेणं, उसकी जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना दो हाथ की होती है। प्र. भंते ! अनुत्तरोपपातिक देवों की शरीरावगाहना कितनी कही गई है? उ. गौतम ! अनुत्तरविमानवासी देवों के एकमात्र भवधारणीया शरीर ही कहा गया है। उसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट एक हाथ की होती है। ३४. आहारक शरीर की अवगाहना प्र. भंते ! आहारक शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है? आयामेणं जहण्णेण अंगुलस्स असंखेज्जइभागो, उक्कोसेण लोगंताओ लोगंतो। प. एगिंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयगसरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? उ. गोयमा !जहा जीवस्स तेयगसरीरस्स तहा भाणियव्वं। उ. गौतम ! जघन्य देशोन कुछ कम एक हाथ की, उत्कृष्ट प्रति पूर्ण एक हाथ की होती है। ३५. तैजस शरीर की अवगाहनाप्र. भंते ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत जीव के तैजस् शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है? उ. गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा शरीर प्रमाण मात्र की अवगाहना होती है। लम्बाई की अपेक्षा तैजस् शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है। प्र. भंते ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजस् शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है? उ. गौतम ! जैसे समवहत जीव के तैजस् शरीर का कथन है वैसा ही कहना चाहिये। इसी प्रकार पृथ्वी-अप-तेजो-वायु-वनस्पतिकायिक तक अवगाहना पूर्ववत् समझनी चाहिए। प्र. भंते ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय के तैजस् शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है? उ. गौतम ! विष्कम्भ एवं बाहल्य की अपेक्षा से शरीर प्रमाण मात्र होती है। लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट तिर्यक् लोक में लोकान्त तक की अवगाहना समझनी चाहिए। एवं चेव जाव पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइकाइयस्स। प. बेइंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयगसरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेण अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण तिरियलोगाओ लोगंतो। १. ठाणं.अ.२,उ.३, सु. १०४ २. (क) एवं ओहियाणं वाणमंतराणं। एवं जोइसियाण वि। सोहम्मीसाणयदेवाणं जाव अच्चुओ कप्पो उत्तरवेउव्विया एवं चेव। णवरं- सणंकुमारे भवधारणिज्जा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं छ रयणीओ, एवं माहिंदे वि बंभलोए लंतगेसु पंच रयणीओ, महासुक्क सहस्सारेसु चत्तारि रयणीओ आणय-पाणय-आरण-अच्चुएसु तिण्णि रयणीओ। प. गेवेज्जग-कप्पातीत-वेमाणिय-देव-पंचेंदिय - वेउब्धियसरीरस्स णं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! गेवेज्जदेवाणं एगा भवधारणिज्जा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं दो रयणीओ। एवं अणुत्तरोववाइयदेवाण वि। णवर- एक्का रयणी। -पण्ण. प. २१, सु. १५३२ (ख) जीवा. पडि.३, सु. २०१ (ई) (ग) ठाणं, अ.१,सु.४६ (घ) सम. सु. १५२ ३. सम.सु.१५२.
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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