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________________ शरीर अध्ययन : आमुख शरीर के साथ अनादि सम्बन्ध पदय से होती है। जब तक नाक्योंकि ये नामकर्म संसारी जीवों का शरीर के साथ अनादि सम्बन्ध है। जब तक जीव आठ कर्मों से मुक्त नहीं होता है तब तक उसका शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहता है। आठ कर्मों में भी शरीर की प्राप्ति नामकर्म के उदय से होती है। जब तक नामकर्म शेष है तब तक शरीर प्राप्त होता रहता है। शरीर की प्राप्ति भी गति, जाति आदि के उदय के अनुरूप होती है। सिद्ध जीवों के शरीर नहीं होता, क्योंकि वे नामकर्म सहित आठों कर्मों से मुक्त होते हैं। शरीर रहित होने के कारण सिद्धों को अशरीरी कहा जाता है। संसारी जीव सदैव सशरीरी होते हैं। शरीर पाँच प्रकार के हैं-१. औदारिक, २, वैक्रिय, ३. आहारक, ४. तैजस् और ५. कार्मण। इनमें से भिन्न-भिन्न जीवों को भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं। २४ दण्डकों में किस-किस जीव को किस-किस शरीर की प्राप्ति होती है इसका प्रस्तुत अध्ययन में विस्तार से विचार हुआ है किन्तु सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि तैजस् और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों को सदैव प्राप्त हैं। ये दोनों शरीर जीव में तब भी विद्यमान होते हैं जब वह एक काया को छोड़कर दूसरी काया धारण करने के बीच विग्रहगति में होता है। औदारिक शरीर तिर्यञ्च एवं मनुष्यगति के सभी जीवों में रहता है। वैक्रिय शरीर नैरयिक एवं देवों में जन्म से होता है तथा तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं मनुष्यों में विशेष लब्धि से प्राप्त होता है। विभिन्न विक्रियाएँ करने के कारण वायुकाय के जीवों में भी वैक्रिय शरीर माना गया है। आहारक शरीर मात्र मनुष्यों में होता है और मनुष्यों में भी प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती चौदह पूर्वधारी साधुओं में पाया जाता है। प्रधान, उदार या स्थूल पुद्गलों से निर्मित शरीर औदारिक कहलाता है। विविध और विशेष प्रकार की क्रियाएँ करने में सक्षम शरीर वैक्रिय कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है-औपपातिक एवं लब्धिप्रत्यय। देवों एवं नैरयिकों में जन्म से पाए जाने के कारण यह शरीर औपपातिक कहलाता है तथा मनुष्य एवं तिर्यञ्चों में लब्धि विशेष से प्राप्त होने के कारण लब्धिप्रत्यय कहा जाता है। आहारक लब्धि से निर्मित शरीर आहारक शरीर कहलाता है। आहार के पाचन में सहायक तथा तेजोलेस्या की उत्पत्ति का आधार शरीर तैजस कहलाता है। यह तैजस् पुद्गलों से बना होता है। कार्मण पुद्गलों से निर्मित शरीर कार्मण कहलाता है। इन पाँच प्रकार के शरीरों में कार्मण शरीर अगुरुलघु है एवं शेष चार शरीर गुरुलघु हैं। शरीर की उत्पत्ति जीव के उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषकार पराक्रम के निमित्त से होती है। औदारिक शरीर, तैजस शरीर एवं कार्मण शरीर के लिए पुद्गलों का चय नियाघात की अपेक्षा छह दिशाओं से और व्याघात की अपेक्षा कदाचित् तीन, चार या पाँच दिशाओं से होता है। वैक्रिय एवं आहारक शरीर के लिए पुद्गलों का चय नियम से छहों दिशाओं से होता है। चय की भाँति उपचय एवं अपचय भी उन्हीं दिशाओं से होता है। ___ ये शरीर जीव से स्पृष्ट होते हैं या अस्पृष्ट; इस शंका का समाधान स्थानांग सूत्र में करते हुए कहा गया है कि वैक्रिय, आहारक, तैजस् और कार्मण शरीर जीव से स्पृष्ट होते हैं जबकि औदारिक शरीर नहीं। औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस् इन चारों शरीरों को कार्मण शरीर से संयुक्त माना गया है। जिन जीवों में औदारिक आदि शरीर उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर भी इन शरीरों के भेद किए जाते हैं, यथा औदारिक शरीर के पाँच भेद किए गए हैं-एकेन्द्रिय औदारिक शरीर, द्वीन्द्रिय औदारिक शरीर, त्रीन्द्रिय औदारिक शरीर, चतुरिन्द्रिय औदारिक शरीर और पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर। वैक्रिय शरीर के दो भेद किए गए हैं-एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। क्योंकि वैक्रिय शरीर वायुकाय के एकेन्द्रिय जीवों एवं देव नारकी आदि पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाया जाता है। वह औदारिक शरीर की भाँति द्वीन्द्रियादि जीवों में नहीं पाया जाता। आहारक शरीर एक ही प्रकार का है क्योंकि वह मात्र मनुष्यों में पाया जाता है। तैजस् एवं कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों में पाए जाते हैं। इन्द्रियों की दृष्टि से इनके भी औदारिक शरीर की भाँति पाँच-पाँच भेद होते हैं-एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय। इन शरीरों के जीव के भेदोपभेदों के अनुसार और भी भेद बनते हैं। यथा एकेन्द्रिय औदारिक शरीर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के भेद से पाँच प्रकार का होता है। फिर ये भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक आदि के आधार पर अनेक उपभेदों में विभक्त हो जाते हैं। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय आदि औदारिक शरीर भी पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक के उपभेदों में विभक्त हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर दो प्रकार का होता है-तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्य शरीर। तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय शरीर भी जलचर, स्थलचर और खेचर भेदों में विभक्त हो जाता है। पुनः ये भी सम्मूर्छिम और गर्भज तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेदों में बंट जाते हैं। मनुष्य भी सम्मूर्छिम और गर्भज के भेद से दो प्रकार का होता है। अतः मनुष्य का औदारिक शरीर भी इस आधार पर दो भागों में विभक्त हो जाता है। इनमें गर्भज मनुष्य का औदारिक शरीर पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक के भेद से पुनः दो प्रकार का होता है। वैक्रिय शरीर एकेन्द्रिय जीवों में भी मात्र बादर वायुकाय जीवों में पाया जाता है, सूक्ष्म वायुकायिक जीवों में यह शरीर नहीं पाया जाता। बादरवायुकायिक जीवों में भी मात्र पर्याप्तक जीवों में यह शरीर होता है, अपर्याप्तक जीवों में नहीं होता। पंचेन्द्रिय की अपेक्षा वैक्रिय शरीर चारों गतियों के जीवों में होता है। नरकगति में रत्नप्रभा आदि. सातों पृथ्वियों के पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक सभी नैरयिकों में, तिर्यञ्चगति में संख्यात वर्षायुष्क गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय की पर्याप्तक अवस्था में यह शरीर हो सकता है। मनुष्यगति में यह शरीर संख्येय वर्षायुष्क कर्मभूमिक एवं गर्भज मनुष्यों की पर्याप्तावस्था में होता है। देवगति में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देवों की सभी अवस्थाओं में यह शरीर होता है। आहारक शरीर ऋद्धिप्राप्त, प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि, पर्याप्तक एवं संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों में होता है अन्य में नहीं। तैजस और कार्मण शरीरों के उतने ही भेद होते हैं जितने संसारी जीवों के प्रकार होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों की पर्याप्त एवं अपर्याप्त आदि अवस्थाओं सहित समस्त भेदोपभेदों में ये दोनों शरीर पाए जाने से इन दोनों शरीरों के अनेक भेद किए जा सकते हैं। ३९४
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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